पुरस्कार कहानी का सारांश - Jaishankar prasad

हिन्दी में गद्य लेखन की एक विधा है। 19 वीं सदी में गद्य में एक नई विधा का विकास हुआ जिसे कहानी के नाम से जाना जाता है। पुरस्कार कहानी के नायक का नाम वरुण हैं और नायिका का नाम मधुलिका है। दोनो एक दूसरे से बहुत प्रेम करते थे। यह कहानी त्याग और देश भक्ति को दर्शाती है।

पुरस्कार कहानी का सारांश

पुरस्कार कहानी का केंद्रीय भाव - यह कहानी प्रेम और संघर्ष की कहानी है। इस कहानी की नायिका मधुलिका है। वह अरुण नामक युवक के प्रेम में आसक्त है। साथ ही जन्मभूमि के प्रति भी उसमें अपार भक्ति है। अरुण उसके राज्य पर आक्रमण करना चाहता है। पर मधुलिका कर्तव्य की बलिवेदी पर, अपने प्रेम का बलिदान कर देती है तथा आक्रमण के पूर्व कौशल नरेश को खबर देकर अपनी मातृभूमि की रक्षा करती है। वह पुरस्कार के रूप में, मृत्युदंड मांगती है।

पुरस्कार कहानी

आर्द्रा नक्षत्र आकाश में काले काले बादलों की घूमड़ के बीच एक कोने से स्वर्ण पुरुष झांकने लगा। वह महाराज की सवारी देख रहा था। तभी बारिश की नन्हीं नन्हीं बूंदों का एक झोंका बरस पड़ा। मंगल सूचना समझ लोगों ने हर्ष के साथ ध्वनि की। रथों, हाथियों और दर्शकों की भीड़ थी। 

गजराज बैठ गया सीढ़ियों से महाराज उतरे, जिसके बाद सुंदर कन्याओं के दल ने मंगल कलश और फूल बिखेरकर मधुर गीत गाकर आगे बढ़ गयी।

पुरस्कार कहानी जयशंकर प्रसाद पुरस्कार कहानी का सारांश

महाराज के मुख पर मधुर मुस्कान थी। जिसके बाद महराज ने स्वर्ण रंजीत हल पकड़कर बैलों को चलने का संकेत किया। बाजे बजने लगे कुंवारी लड़कियों ने फूलों की वर्षा की। यह कौशल का उत्सव मनाया जा रहा था।

एक दिन के लिए महाराज को कृषक बनना पड़ाता उस दिन इंद्र पूजा की जाती हैं। नगर-निवासी उस पहाड़ी भूमि में आनंद मनाते। प्रतिवर्ष कृषि का यह महोत्सव उत्साह से संपन्न होता, दूसरे राज्यों से भी युवक राजकुमार इस उत्सव में बड़े चाव से आकर योगदान देते हैं।

मगध का एक राज कुमार अरुण अपने रथ पर बैठा बड़े कुतूहल से यह दृश्य देख रहा था। बीजों का एक थाल लिए कुमारी मधुलिका महाराज के साथ थी। बीज बोन के लिए महाराज जब हाथ बढ़ाते, तब मधुलिका उनके सामने थाल आगे कर देती थी। 

यह खेत मधुलिका का था। जो इस साल महाराज की खेती के लिए चुना गया था। इसलिए बीज देने का सम्मान मधुलिका को ही मिला था। सब लोग महाराज का हल चलाना देख रहे थे और अरुण भी देख रहा था।

उत्सव समाप्त होने चला था। महाराज ने मधुलिका के खेत के बदले थाल में कुछ स्वर्ण मुद्राएं रख दिया। मधुलिका ने थाली सिर से लगाकर उन स्वर्ण मुद्राओं को महाराज पर न्योछावर करके बिखेर दिया। मधुलिका की इस क्रिया को लोग आश्चर्य से देखने लगे।        

मधुलिका ने सविनय कहा - देव ! यह मेरे पितृ पितामहों की भूमि है। इसे बेचना अपराध है। इसलिए मूल्य स्वीकार करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है।

मंत्री ने तीखे स्वर से कहा - अबोध ! क्या बक रही है? राजकीय अनुग्रह का तिरस्कार ! तेरी भूमि से चौगुना मूल्य है। फिर कोशल का तो यह राष्ट्रीय नियम है। तू आज से राजकीय रक्षण पाने की अधिकारीणी हुई इस धन से अपने को सुखी बना।

मधुलिका उत्तेजित होकर - राजकीय रक्षण की अधिकारिणी तो सारी प्रजा है मंत्रिवर ! महाराज को भूमि समर्पण करने में तो मेरा कोई विरोध न था और न है। किंतु मूल्य स्वीकार करना असंभव है।

मंत्री ने महाराज के संकेत करने पर कहा - देव ! वाराणसी युद्ध के अंयतम वीर सिंहमित्र की एकमात्र कन्या है।

महाराज चौक उठे - सिंहमित्र की कन्या ! जिसने मगध के सामने कोशल की लाज रख ली थी, उसी वीर की मधुलिका कन्या है?

मंत्री ने कहा - हाँ महराज वही सिंहमित्र कन्या।

महाराज ने पूछा - इस उत्सव के परंपरागत नियम क्या हैं, मंत्रीवर?

मंत्री ने कहा - देव, नियम तो बहुत साधारण हैं। किसी भी अच्छी भूमि को इस उत्सव के लिए चुनकर नियमानुसार पुरस्कार स्वरूप उसका मूल्य दे दिया जाता है। वह भी अत्यंत अनुग्रह पूर्वक। भू संपत्ति का चौगुना मूल्य उसे दिया जाता है। उस खेती को वही व्यक्ति वर्ष भर देखता है। लेकिन वह राजा का खेत कहा जाता है।

महाराज को विश्राम की अत्यंत आवश्यकता थी। महाराज चुप रहे और जयघोष के साथ सभा विसर्जित हो हुई। सब अपने-अपने शिविरों में चले गए। किंतु मधुलिका को उत्सव में फिर किसी ने न देखा। वह अपने खेत की सीमा पर एक विशाल वृक्ष की छाया में चुपचाप बैठी थी।

रात्रि का उत्सव अब समाप्त हो चला था। राजकुमार अरुण अपने विश्राम भवन में थे। आंखों में नींद न थी। सामने देखा तो एक अश्व खड़ा था। उसे देखते-देखते नगर तोरण पर जा पहुंचा। रक्षक गण अश्व के पैरों के शब्द से चौंक उठे। अरुण वह से तीर की भाती निकल गया। 

घूमता-घूमता अरुण उसी वृक्ष के नीचे पहुंचा, जहां मधुलिका सो रही थी। अरुण ने अपने अश्व को मौन रहने का संकेत किया। उस सुषमा को देखने के लिए। परंतु कोकिल बोल उठी। जैसे उसने अरुण से प्रश्न किया - छि, कुमारी के सोए हुए सौंदर्य पर दृष्टिपात करने वाले दृष्ट तुम कौन ? 

मधुलिका की आंखें खुल पड़ी उसने एक अपरिचित युवक को  देखा। वह संकोच से उठ बैठी।

अरुण ने कहा - भद्रे ! तुम ही कल के उत्सव की संचालिका थी ?

मधुलिका ने कहा - क्यों आपको कल का स्वप्न सता रहा है ? आप क्या मुझे इस अवस्था में संतुष्ट न रहने देंगे ?

अरुण ने कहा - मेरा ह्रदय तुम्हारी उस छवि का भक्त बन गया है, देवि।

मधुलिका ने कहा - मेरे उस अभिनय का मेरी विडंबना का। मनुष्य कितना निर्दय है, अपरिचित ! क्षमा करो जाओ अपने मार्ग।

अरुण ने कहा - सरलता की देवी ! मैं मगध का राजकुमार तुम्हारे अनुग्रह का प्रार्थी हूं। मेरे हृदय की भावना अवगुंठन में रहना नहीं जानती हैं।

मधुलिका ने कहा - राजकुमार मैं कृषक बालिका हूँ। आप नंदन बिहारी और मैं पृथ्वी पर परिश्रम करके वाली। आज मेरी स्नेह की भूमि पर से मेरा अधिकार छीन लिया गया है। मैं दुख से विकल हूँ। मेरा उपहास न करो।

अरुण ने कहा - मैं कौशल नरेश से तुम्हारी भूमि तुम्हें दिलवा दूँगा।

मधुलिका ने कहा - नहीं, वह कौशल का राष्ट्रीय नियम है। मैं उसे बदलना नहीं चाहती, चाहे उससे मुझे कितना ही दुःख हो।

अरुण ने कहा - तब तुम्हारा रहस्य क्या है?

मधुलिका ने कहा - यह रहस्य मानव हृदय का है, मेरा नहीं। राजकुमार, नियमों से यदि मानव ह्रदय बाध्य होता तो आज मगध के राजकुमार का ह्रदय किसी राजकुमारी की ओर न खींचकर एक कृषक बालिका का अपमान करने न आता। 

मधुलिका उठ खड़ी हुई। चोट खाकर राजकुमार लौट गया। अश्व वेग से चला जा रहा था और मधुलिका के ह्रदय में टीस सी होने लगी वह सजल नेत्रों से उड़ती हुई धूल देखने लगी।

मधुलिका ने राजा का उपहार नहीं लिया। वह दूसरे की खेतों में काम करती और रूखी-सूखी खाकर पड़ी रहती थी। मधूक वृक्ष के नीचे उसकी छोटी सी कुटिया थी। जिसके सूखे डंठलों से दीवार बनी थी। कठोर परिश्रम से जो रुखा-सुखा मिलता उसी से उसकी सांसे चलती थी।

दुबली होने पर भी उसके अंग पर तपस्या की कांति थी। आसपास के कृषक उसका आदर करते वह एक आदर्श बालिका की उपाधि देते थे। दिन, सप्ताह, महीने और वर्ष बीतने लगे। 

शीतकाल का मौसम मेघों से भरा आकाश में बिजली दौड़-धूप कर रही थी। मधुलिका का छाजन टपक रहा था। वह ठिठुर कर एक कोने में बैठी थी। मधुलिका अपने अभाव को आज बढाकर सोच रही थी। आज बहुत दिनों बाद उसे बीती हुई बात स्मरण हुई। 

2 नहीं 3 वर्ष हुए होंगे, इसी मधूक वृक्ष के नीचे तरुण राजकुमार ने क्या कहा था ? आज मधुलिका उस बीते हुए क्षण को लौटा लेने के लिए विकल थी। मगध की प्रसाद-माला के वैभव का काल्पनिक चित्र उन सूखे डंठलो के रंध्रों से, नभ में बिजली के आलोक में नाचता हुआ दिखाई देने लगा।

शिशु जैसे श्रावण की संध्या में जुगनू को पकड़ने के लिए हाथ लपकाता है, वैसे ही मधुलिका मन ही मन कह रही थी। कास अभी वह निकल कर आ जाये। वर्षा ने भीषण रूप धारण कर लिया। गड़गड़ाहट बढ़ने लगी, ओले पड़ने की संभावना थी। मधुलिका अपनी जर्जर झोपड़ी के लिए कांप उठती हैं। बहार कुछ आवाज सुनाई देता हैं।

कौन है यहाँ ? पथिक को आश्रय चाहिए। मधुलिका ने डंठलों का कपाट खोल दिया। बिजली चमक उठी। उसने देखा एक पुरुष घोड़े की डोर पकड़े खड़ा है। वह चिल्ला उठी - राजकुमार ! आश्चर्य से युवक ने कहा - मधुलिका ? 

एक क्षण के लिए सन्नाटा सा छा गया। मधुलिका अपनी कल्पना को प्रत्यक्ष देखकर, चकित हो गई। 

मधुलिका ने कहा - इतने दिनों के बाद आज फिर!

अरुण ने कहा - कितना समझाया मैंने परंतु .....

मधुलिका अपनी दयनीय अवस्था पर संकेत करने देना नहीं चाहती थी। उसने कहा - और आज आपकी यह क्या दशा है? सिर झुका कर अरुण ने कहा - मैं मगध का विद्रोही निर्वासित, कोशल में जीविका खोजने आया हूँ।

मधुलिका उस अंधकार में हंस पडी। मगध के विद्रोही राजकुमार का स्वागत करें एक अनाथिनी कृषक बालिका, यह भी एक विडंबना है, तो भी मैं स्वागत के लिए प्रस्तुत हूं। अरुण और मधुलिका वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए बातें कर रहे हैं। मधुलिका की वाणी में उत्साह था।

मधुलिका ने पूछा - जब तुम इतनी विपन्न अवस्था में हो तो फिर इतने सैनिकों को साथ रखने की आवश्यकता है ?

अरुण ने कहा - मधुलिका ! बाहुबल तो वीरों की आजीविका है। यह मेरे जीवन-मरण के साथी हैं, भला मैं इन्हें कैसे छोड़ देता और करता ही क्या ?

मधुलिका ने पूछा - हम लोग परिश्रम से कमाते और खाते हैं तो तुम..... क्यों नहीं।

अरुण ने कहा - भूल ना करो। मैं अपने बाहुबल पर भरोसा करता हूँ। नए राज्य की स्थापना कर सकता हूँ, निराश क्यों हो जाऊं ? अरुण के शब्दों में कंपन था, वह जैसे कुछ कहना चाहता था, पर कह न सकता था।

मधुलिका ने पूछा - नवीन राज्य ! ओहो ! तुम्हारा उत्साह तो कम नहीं। भला कैसे ? कोई ढंग बताओ तो मैं भी कल्पना का आनंद ले लूं।

अरुण ने कहा - कल्पना का आनंद नहीं मधुलिका मैं तुम्हें राजरानी के समान सिंहासन पर बिठाऊँगा ! तुम अपने छीने हुए खेत की चिंता करके वह भयभीत हो।

मधुलिका ने पूछा - आह मैं सचमुच आज तक तुम्हारी प्रतीक्षा करती थी, राजकुमार !

अरुण ढिठाई से उसके हाथों को दबाकर बोला - तो मेरा भ्रम था, तुम सचमुच मुझे प्यार करती हो ?

युवती का वक्षस्थल फूल उठा, वहां हाँ भी नहीं कह सकी, ना भी नहीं। अरुण ने उसकी अवस्था का अनुभव कर लिया।  कुशल मनुष्य के समान उसने अवसर को हाथ से न जाने दिया। तुरंत बोल तुम्हारी इच्छा हो तो प्राणों से पण लगाकर मैं तुम्हें इस कोशल सिहासन पर बिठा दूं। मधुलीके ! अरुण की खड्ग का आतंक देखोगी ? 

मधुलिका एक बार कांप उठी। वह कहना चाहती थी - नहीं ! किंतु उसके मुंह से निकला - क्या ?

अरुण ने कहा - सत्य मधुलिका, कोशल नरेश तभी से तुम्हारे लिए चिंतित हैं। यह मैं जानता हूँ। तुम्हारी साधारण सी प्रार्थना वे अस्वीकार न करेंगे। मुझे यह भी विदित है कि कोशल के सेनापति अधिकांश सैनिकों के साथ पहाड़ी दस्युओं का दमन करने के लिए बहुत दूर चले गए हैं।

अरुण ने कहा - तुम बोलती नहीं हो ?

मंत्रमुग्ध-सी मधुलिका ने कहा - जो कहोगे वह करुँगी।

स्वर्णमंच पर कोशल नरेश अर्धनिंद्रित अवस्था में आंखें बंद किए हैं। एक चामरधारिणी युवती पीछे खड़ी अपनी कलाई बड़ी कुशलता से घुमा रही है। चमर के शुभ आंदोलन उस कोष्ट में धीरे-धीरे संचालित हो रहे हैं। तांबूल वाहिनी प्रतिमा के समान दूर खड़ी है। 

प्रतिहारी ने आकर कहा - जय हो देव ! एक स्त्री कुछ प्रार्थना करने आई है।

आंखें खोलते हुए महाराज ने कहा - स्त्री ! प्रार्थना करने आई है ? आने दो।

प्रतिहारी के साथ मधुलिका आई। उसने प्रणाम किया। महाराज ने स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा - तुम्हें कहीं देखा है?

मधुलिका ने कहा - तीन बरस हुए देव ! मेरी भूमि खेती के लिए ली गई थी।

राजा ने कहा - ओह ! तो तुमने इतने दिन कष्ट में बिताए, आज उसका मूल्य माँगने आई हो, क्यों अच्छा-अच्छा तुम्हें मिलेगा। प्रतिहारी !

मधुलिका ने कहा - नहीं महाराज, मुझे मूल्य नहीं चाहिए।

राजा ने कहा - मूर्ख ! फिर क्या चाहिए ?

मधुलिका ने कहा - उतनी ही भूमि, दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि, वही मैं अपनी खेती करूंगी। मुझे एक सहायक मिल गया है। वह मनुष्यों से मेरी सहायता करेगा, भूमि को समतल भी तो बनाना होगा।

महाराज ने कहा - कृषक बालिके ! वह बड़ी ऊबड़-खाबड़ भूमि है। वह दुर्ग के समीप एक सैनिक महत्व रखती है।

मधुलिका ने कहा - तो फिर निराश लौट जाऊं ?

महाराज ने कहा - सिंहमित्र की कन्या ! मैं क्या करूं ? तुम्हारी यह प्रार्थना ..

मधुलिका ने कहा - देव ! जैसी आज्ञा हो !

महाराज ने कहा - जाओ, तुम श्रमजीवीयों को उसमें लगाओ। मैं अमात्य को आज्ञापत्र देने का आदेश करता हूँ।

मधुलिका ने कहा - जय हो देव ! कहकर प्रणाम करती हुई मधुलिका राज मंदिर के बाहर आई।

दुर्ग की दक्षिण, भयावने नाले के तट पर घना जंगल है। आज मनुष्यों के पद संचार से शून्यता भंग हो रही थी। अरुण के छिपे हुए सैनिक स्वतंत्रता से इधर-उधर घूमते थे। झाड़ियों को काटकर पत्र बन रहा था। 

नगर दूर था फिर उधर यों ही कोई नहीं आता था। फिर अब तो महाराज की आज्ञा से वहाँ मधुलिका खेत बन रही थी। तब इधर की किसको चिंता होती ?

एक घने कुंज में अरुण और मधुलिका एक - दूसरे को हर्षित नेत्रों से देख रहे थे। संध्या हो चली थी। उसने निविड़ वन में उन नवागत मनुष्यों को देखकर पक्षीगण अपने नीड़ को लौटते हुए अधिक कोलाहल कल कर रहे थे। प्रसन्नता से अरुण की आँखें चमक उठी। सूर्य की अंतिम किरण झुरमुट में घुसकर मधुलिका के कपोलों से खेलने लगीं।

अरुण ने कहा - चार प्रहर और विश्राम करो, प्रभात में ही इस जीर्ण कलेवर कोशलराष्ट्र की राजधानी श्रावस्ती में तुम्हारा अभिषेक होगा और मगध से निर्वासित मैं एक स्वतंत्र राष्ट्र का अधिपति बनूंगा मधुलिके !

मधुलिका ने कहा - भयानक ! अरुण, तुम्हारा साहस देख मैं चकित हो रही हूँ। केवल सौ सैनिकों से तुम..

अरुण ने कहा - रात के तीसरे प्रहर में मेरी विजय यात्रा होगी।

मधुलिका ने कहा - तो तुमको इस विजय पर विश्वास है ?

अरुण ने कहा - अवश्य ! तुम अपनी झोपड़ी में यह रात बिताओ, प्रभात से तो राज मंदिर ही तुम्हारा लीला निकेतन बनेगा।

मधुलिका प्रसन्न थी। किंतु अरुण के लिए उसकी कल्याण कामना सशंक थी। वह कभी-कभी उद्विग्न-सी होकर बालकों के समान प्रश्न कर बैठती। अरुण उसका समाधान कर देता। 

अरुण ने कहा - अच्छा अंधकार अधिक हो गया। अभी तुम्हें दूर जाना है और मुझे भी प्राणपण से इस अभियान के प्रारंभिक कार्यों को अर्धरात्रि तक पूरा कर लेना चाहिए। तब रात्रि भर के लिए विदा मधुलिके !

मधुलिका उठ खड़ी हुई झाड़ियों से गुजरती हुई क्रम से बढ़ने वाली अंधकार में वह झोपड़े की ओर चली गई। पथ अंधकारमय था और मधुलिका का हृदय भी विचलित हो उठा। जितनी सुख कल्पना थी, वह जैसे अंधकार में विलीन होने लगी। वह भयभीत थी, पहला भय उसे अरुण के लिए उत्पन्न हुआ। यदि वह सफल न हुआ तो ?

वह सोचने लगी कोशल नरेश ने क्या कहा था। सिंहमित्र की कन्या। कौशल का रक्षक वीर, उसी की कन्या आज क्या करने जा रही है ? नहीं-नहीं। उसे मधुलिका! मधुलिका! सुनाई देने लगी जैसे उसके पिता उस अंधकार में पुकार रहे थे। वह पगली की तरह चिल्ला उठी रास्ता भूल गई। 

रात का एक पहर बीतचला था, पर मधुलिका अपनी झोपड़ी तक न पहुँची थी। उसकी आंखों के सामने कभी सिंहमित्र और कभी अरुण की मूर्ति अंधकार में चित्रित होती जाती। उसे सामने आलोक दिखाई पड़ा। वह बीच पथ में खड़ी हो गई। 

एक सौ सैनिक चले आ रहे थे और आगे-आगे एक वीर अधेड़ सैनिक था। उसके बाएं हाथ में अश्व की वल्गा और दाहिने हाथ में नग्न खड़ग था। अत्यंत धीरता से वह टुकड़ी अपने पथ में चल रही थी परंतु मधुलिका बीच पथ से हिली नहीं। प्रमुख सैनिक पास आ गया। फिर भी मधुलिका नहीं हटी। 

सैनिक ने अश्व रोककर कहा - कौन ? कोई उत्तर नहीं मिला। 

तब तक दूसरे सैनिक ने कड़ककर कहा - तू कौन है स्त्री ? कौशल के सेनापति कौशल के सेनापति को उत्तर शीघ्र दे।

मधुलिका चिल्ला उठी - बांध लो मुझे। मेरी हत्या करो। मैंने अपराध ही ऐसा किया है।

सेनापति हँस पड़े - पगली है।

मधुलिका ने कहा - पगली नहीं, यदि पगली होती, तो इतनी विचार वेदना क्यों होती सेनापति मुझे बांध लो राजा के पास लो राजा के पास ले चलो।

सेनापति ने कहा - क्या है स्पष्ट कहो।

मधुलिका ने कहा - श्रावस्ती का दुर्ग एक प्रहर में दस्युओं के हस्तगत हो जाएगा। दक्षिणी नाले के पार उनका आक्रमण होगा।

सेनापति चौक उठे। उन्होंने आश्चर्य से पूछा - तू क्या कह रही है ? 

मधुलिका ने कहा - मैं सत्य कह रही हूं शीघ्रता करो।

सेनापति ने 80 सैनिकों को नाले की ओर धीरे-धीरे बढ़ने की आज्ञा दी और स्वयं 20 अश्वारोहियों के साथ दुर्ग की ओरजाने लगा। मधुलिका को बांधकर ले जाया गया।

जब थोड़े से अश्वारोही बड़े वेग से आते हुए दुर्ग द्वार पर रुके, तब दुर्ग के प्रहरी चौक उठे। उन्होंने सेनापति को पहचाना द्वारा खुला। सेनापति घोड़े की पीठ से उत्तरे। उन्होंने कहा - अग्निसेन ! दुर्ग में कितने सैनिक होंगे ?

सेनापति की जय हो ! दो सौ।

उन्हें शीघ्र ही एकत्र करो। परन्तु बिना किसी शब्द के। सौ को लेकर तुम शीघ्र ही चुपचाप दुर्ग के दक्षिण की और चलो। आलोक और शब्द न हो। 

सेनापति ने मधुलिका की ओर देखा और उसे खोलने की आज्ञा दिया। उसे अपने पीछे आने का संकेत कर सेनापति राज मंदिर की और बढ़े। प्रतिहारी ने सेनापति को देखते ही महाराज को सावधान किया। सेनापति और साथ में मधुलिका को देखते ही महराज चंचल हो उठे। 

सेनापति ने कहा - जय हो देव ! इस स्त्री के कारण मुझे इस समय उपस्थित होना पड़ा है।

महाराज ने स्थिर नेत्रों से देखकर कहा - सिंहमित्र की कन्या, फिर यहाँ क्यों ? क्या तुम्हारा क्षेत्र नहीं बन रहा है ? कोई बाधा ? सेनापति ! मैंने दुर्ग के दक्षिण नाले के समीप की भूमि इसे दी है। क्या उसी संबंध में तुम कहना चाहते हो ?

सेनापति ने कहा - देव ! किसी गुप्त शत्रु ने उसी ओर से आज की रात में दुर्ग पर अधिकार कर लेने का प्रबंध किया है और इसी स्त्री ने मुझे यह संदेश दिया है।

राजा ने पूछा - मधुलिका, यह सत्य है ?

मधुलिका ने कहा - हाँ देव !

राजा ने सेनापति से कहा - सैनिकों को एकत्र करके तुम चलो, मैं अभी आता हूँ।

सेनापति के चले जाने पर राजा ने कहा - सिंहमित्र की कन्या ! तुमने एक बार फिर कोशल का उपकार किया। यह सुचना देकर तुमने पुरस्कार का काम किया है। अच्छा, तुम यहीं ठहरो। पहले उन आततायियों का प्रबंध कर लूँ।

इस अभियान में अरुण को बन्दी बना लिया गया और भीड़ ने जयघोष किया। सबके मन में उल्लास था। सभा मंडप दर्शकों से भर गया। बन्दी अरुण को देखते ही जनता ने रोष से हुंकार करते हुए कहा - वध करो ! राजा ने सबसे सहमत होकर आज्ञा दी। प्राणदण्ड की आज्ञा दिया ! 

मधुलिका को बुलाया गया। वह पगली सी आकर खड़ी हो गई। कोशल नरेश ने पूछा - मधुलिका, तुझे जो पुरस्कार लेना हो  मांग। वह चुप रही।

राजा ने कहा - मेरी जितनी निजी खेती है, मैं सब तुझे देता हूँ। 

मधुलिका ने एक बार बन्दी अरुण की ओर देखा। उसने कहा - मुझे कुछ नही चाहिए। अरुण हँस पड़ा। 

राजा ने कहा - नहीं, मैं तुझे अवश्य दूँगा। माँग ले।

मधुलिका ने कहाँ - तो मुझे भी प्राणदंड मिले। कहती हुई वह बन्दी अरुण के पास जा खड़ी हुई।

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