कन्नौज का युद्ध, जिसे गंगा का युद्ध भी कहा जाता है, 17 मई 1540 ई. को अफ़गान शासक और सूर साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह सूरी और मुग़ल सम्राट हुमायूँ के बीच लड़ा गया था। यह युद्ध भारतीय इतिहास में एक निर्णायक क्षण था, जिसके परिणामस्वरूप मुग़ल साम्राज्य का अस्थायी पतन हुआ और शेरशाह का उत्तरी भारत के सबसे शक्तिशाली शासक के रूप में उदय हुआ।
कन्नौज का युद्ध
इस युद्ध के बीज इसके घटित होने से कई साल पहले ही बो दिए गए थे। बाबर के पुत्र हुमायूँ को अपने पिता की मृत्यु के बाद 1530 में मुग़ल गद्दी विरासत में मिली। हालाँकि, उसे अफ़गान सरदारों और राजपूत शासकों से लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उनमें से, एक प्रतिभाशाली अफ़गान सैन्य कमांडर शेरशाह सूरी (मूल रूप से शेर खान), हुमायूँ का सबसे बड़ा विरोधी साबित हुआ।
शेरशाह ने पहली बार चौसा के युद्ध (1539 ई.) में अपनी शक्ति का परीक्षण किया, जहाँ उसने हुमायूँ को करारी हार दी। इस असफलता के बावजूद, हुमायूँ ने अपनी सेनाओं को फिर से संगठित किया और एक और युद्ध की तैयारी की, जिसकी परिणति अगले वर्ष कन्नौज में हुई।
युद्धक्षेत्र
यह युद्ध कन्नौज के निकट हुआ, जो वर्तमान उत्तर प्रदेश का एक रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण शहर है और गंगा नदी के तट पर स्थित है। इसका स्थान महत्वपूर्ण था क्योंकि कन्नौज पर जिसका भी नियंत्रण था, उसका उपजाऊ गंगा के मैदानों पर प्रभाव था—जो मध्यकालीन भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था का केंद्र था।
17 मई 1540 को, हुमायूँ और शेरशाह सूरी की सेनाएँ एक बार फिर भिड़ गईं।
हुमायूँ की सेना: संख्याबल में मजबूत होने के बावजूद, उसकी सेना में समन्वय का अभाव था और नेतृत्व भी कमज़ोर था। हुमायूँ की अपने भाइयों, विशेषकर कामरान मिर्ज़ा पर निर्भरता ने मुग़ल खेमे में फूट पैदा कर दी।
शेरशाह की सेना: इसके विपरीत, शेरशाह की सेनाएँ अत्यधिक अनुशासित और रणनीतिक रूप से श्रेष्ठ थीं। गुरिल्ला रणनीति, किलेबंद युद्ध शिविरों और तेज़ घुड़सवार सेना के उनके प्रयोग ने उन्हें निर्णायक बढ़त दिलाई।
युद्ध शुरू होते ही शेरशाह के तोपखाने और घुड़सवार सेना ने मुग़ल सेना को भारी क्षति पहुँचाई। हुमायूँ की सेना का मनोबल तेज़ी से गिर गया और बादशाह को अस्त-व्यस्त होकर पीछे हटना पड़ा।
परिणाम
कन्नौज के युद्ध के दूरगामी परिणाम हुए:
हुमायूँ की हार: मुग़ल बादशाह ने न केवल युद्ध बल्कि अपना साम्राज्य भी खो दिया। वह युद्ध के मैदान से भाग गया और वर्षों तक सहायता की तलाश में भटकता रहा, अंततः उसने फ़ारस में शरण ली।
शेरशाह सूरी का उदय: शेरशाह उत्तर भारत के शासक के रूप में उभरा। उसने सूर साम्राज्य की स्थापना की और उल्लेखनीय प्रशासनिक और सैन्य कौशल के साथ शासन किया। राजस्व संग्रह, भूमि प्रबंधन और सड़क निर्माण (जैसे ग्रैंड ट्रंक रोड) में उसके सुधारों ने एक स्थायी विरासत छोड़ी।
मुग़ल पतन: लगभग 15 वर्षों तक, मुग़ल वंश का पतन हो गया। 1545 में शेरशाह की मृत्यु और उसके बाद सूर साम्राज्य में अस्थिरता के बाद ही हुमायूँ के पुत्र, अकबर महान, मुग़ल साम्राज्य को पुनर्स्थापित और विस्तारित कर पाए।
युद्ध की विरासत
कन्नौज का युद्ध इस बात का एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे सैन्य रणनीति और नेतृत्व किसी साम्राज्य का भाग्य तय कर सकते हैं। शेरशाह की जीत ने एक योद्धा और एक राजनेता, दोनों के रूप में उनकी प्रतिभा को प्रदर्शित किया, जबकि हुमायूँ की हार ने प्रारंभिक मुगल शासन की कमज़ोरियों को दर्शाया।
भारतीय इतिहास के व्यापक आख्यान में, यह युद्ध मुगलों के अस्थायी पतन और शेरशाह सूरी के अधीन अफ़गान शक्ति के उल्लेखनीय उदय का प्रतीक है। हालाँकि हुमायूँ ने अंततः गद्दी पुनः प्राप्त कर ली, लेकिन शेरशाह ने ही शासन की कई ऐसी नींव रखीं जिन्हें बाद में मुगलों ने भी अपनाया।
कन्नौज का युद्ध (1540 ई.) एक निर्णायक युद्ध था जिसने 16वीं शताब्दी के भारत में शक्ति संतुलन को बदल दिया। इसने न केवल हुमायूँ के शासन को अस्थायी रूप से समाप्त कर दिया, बल्कि शेरशाह सूरी की प्रतिभा को भी प्रदर्शित किया, जिनके शासन के दृष्टिकोण ने आने वाली सदियों तक भारतीय प्रशासन को प्रभावित किया।
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