परिवहन और संचार के साधन - parivahan aur sanchar

Post a Comment

वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने की सुविधा को परिवहन कहते हैं। परिवहन के लिए पशुओं तथा विभिन्न प्रकार के वाहनों का उपयोग किया जाता है। आधुनिक युग में परिवहन तथा संचार आर्थिक विकास के लिए अति आवश्यक हैं। परिवहन के द्वारा ही हमारी जरूरतों के सामान आसानी से उपलब्ध हो पते हैं।

विषय वस्तु 

  1. स्थल परिवहन
  2. जल परिवहन
  3. वायु परिवहन
  4. पाइप लाइन
  5. संचार के साधन
  6. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार

परिवहन और संचार के साधन

परिवहन साधनों के तीन प्रकार होते हैं, जो निम्नलिखित हैं -

  1. स्थल परिवहन - सड़क व रेलमार्ग।
  2. जल परिवहन - समुद्र, नदी व नहर मार्ग। 
  3. वायु परिवहन - राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय वायु मार्ग।

स्थल परिवहन

स्थल परिवहन के अन्तर्गत सड़क व रेलमार्ग मुख्य परिवहन साधन हैं। नीचे दोनों रूप की जानकारी दिया गया हैं। 

1. सड़क मार्ग

परिवहन में सबसे प्राचीन साधन सड़क मार्ग है। यात्रियों के आवागमन के लिए भू-भागों पर मिट्टी, कंकड़, पत्थर, कोलतार आदि की सहायता से निर्मित मार्गों को सड़क मार्ग कहा जाता है। इन मार्गों पर मनुष्य, पशु एवं अन्य अनेक प्रकार के वाहन चलते हैं। 

मोटर गाड़ियों के आविष्कार ने सड़क मार्गों को बहुत महत्व प्रदान किया है। इन मार्गों के निर्माण में निम्नलिखित तत्वों का प्रभाव पड़ता है

धरातलीय रचना - समतल मैदानी भागों में सड़क मार्गों का विकास सुविधाजनक एवं लाभकारी होने के कारण तीव्र गति से होता है। पठारी व पर्वतीय भागों में सड़क निर्माण में अधिक धन खर्च होता है। इसी कारण उत्तरी भारत में सड़कों का जाल बिछा है, जबकि दक्षिणी पठारीय भारत में अपेक्षाकृत कम सड़क मार्गों का विकास हो पाया है।

जलवायु - सम जलवायु वाले प्रदेशों में सड़क निर्माण की आदर्श भौगोलिक परिस्थितियाँ उपलब्ध होती हैं। गर्म जलवायु वाले प्रदेशों में सड़कों के किनारे-किनारे छायादार वृक्ष लगाने होते हैं। अत्यंत गर्म और शुष्क प्रदेशों में स्थल भाग रेत या बालू की परत से ढँका होता है, जिससे सड़कें बनाना कठिन होता है। गर्म एवं तर जलवायु वाले प्रदेश दलदली तथा सघन वनों से ढके होते हैं और वहाँ भी सड़कें बनाना कठिन होता है।

जनसंख्या - सघन बसे क्षेत्रों में लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अधिक आवागमन एवं परिवहन की आवश्यकता होती है, जबकि 8. सड़क मार्ग। विरल बसे क्षेत्रों में सड़कों का विकास कम होता है। जैसे पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका में, रॉकी क्षेत्र की अपेक्षा अधिक सड़कें हैं।

आर्थिक विकास - आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न राष्ट्रों या क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धों के विकास के लिये सड़कों का विकास आवश्यक होता है, इसीलिए यूरोपीय देशों में सड़कों का जाल बिछा है, जबकि निर्धन देशों में सड़कों का अभाव है।

व्यापारिक उन्नति - जिन प्रदेशों में व्यापार व्यवसाय उन्नतिशील होता है, वहाँ वाणिज्यिक गतिविधियों एकत्रीकरण के अधिक होने के कारण सड़कों का विकास अधिक होता है, क्योंकि प्रदेश की सभी वस्तुओं का एवं वितरण इन सड़क मार्गों द्वारा ही होता है।

सुरक्षा - आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा हेतु सैनिक गतिविधियों के लिए सड़कों का निर्माण किया जाता है जैसे- लद्दाख, क्षेत्र में चीन व भारत द्वारा अनेक सड़कों का निर्माण किया गया है।

प्रशासनिक आवश्यकता - देश की आंतरिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए प्रत्येक तहसील, जिला तथा अन्य प्रमुख नगरों को राजधानियों से सड़क मार्गों द्वारा जोड़ा जाता है। इसी प्रकार, ग्रामीण क्षेत्रों से अनेक सड़कें तहसील व जिला कार्यालय तक पहुँचने हेतु बनाई जाती हैं।

सड़क मार्गो का महत्त्व

  1. सड़क मार्ग देश के कोने-कोने तक पहुँचते हैं ।
  2. सड़कों द्वारा माल को लोगों के घरों तक पहुँचाया जा सकता है। 
  3. माल को यथास्थान शीघ्र पहुँचाने के कारण माल सुरक्षित रहता है। 
  4. सड़कों का उपयोग आवश्यकतानुसार व्यक्तिगत रूप से किया जा सकता है।
  5. सड़कों द्वारा माल एक बार वाहन में लादकर इच्छित स्थान तक पहुँचाने की सुविधा होती है। 
  6. सड़कें ग्रामीण क्षेत्रों के उत्पादन को व्यापारिक मण्डियों तक पहुँचाने का सुविधाजनक साधन हैं।
  7. सड़कें कम दूरी के लिए सस्ती व उत्तम साधन हैं।
  8. दुर्भिक्ष और बाढ़ आदि आपातकाल के समय सड़कें बड़ी उपयोगी सिद्ध होती हैं।
  9. राष्ट्र की सुरक्षा एवं प्रशासन में सड़कें सहायक होती हैं।
  10. आर्थिक एवं औद्योगिक प्रगति बिना सड़कों के संभव नहीं होती है।

इन सभी महत्त्वों के साथ-साथ सड़क मार्ग के कुछ दोष भी हैं, जैसे- वर्षा का प्रभाव, सड़कों के खराबी से समान का खराब होना, दुर्घटनाएँ आदि।

विश्व वितरण - सम्पूर्ण विश्व में लगभग 205 करोड़ कि.मी. लंबी सड़कें हैं। इनका अधिकांश भाग औद्योगिक एवं व्यापारिक दृष्टि से विकसित देशों में पाया जाता है। सर्वाधिक सड़कें संयुक्त राज्य अमेरिका में पायी जाती हैं। 

यहाँ लगभग 50 लाख किमी लंबी सड़कें हैं। यहाँ की प्राय: सभी सड़कें पक्की एवं सुव्यवस्थित हैं। सड़क मार्गों की दृष्टि से पश्चिमी यूरोप बहुत विकसित है। यहाँ औद्योगिक एवं व्यापारिक प्रगति के परिणामस्वरूप लगभग प्रत्येक गाँव, नगर तथा कस्बा सड़क मार्गों से जुड़ा है।

एशियाई देशों में जापान, चीन व भारत में सड़कों का विकास हुआ है, किन्तु चीन व भारत में सड़क मार्गों के विकास की बहुत अधिक अपेक्षाएँ हैं। भारत में इन्हें विभिन्न योजनाओं द्वारा पूर्ण करने का प्रयास किया जा रहा है। दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया तथा अफ्रीका महाद्वीपों में सड़क मार्गों का विकास बहुत कम हो पाया है। 

संयुक्त राज्य अमेरिका - विश्व की सबसे अधिक लंबी सड़कों का विस्तार इसी देश में पाया जाता है। यहाँ सड़कों की लम्बाई 50 लाख किमी से भी अधिक है। यहाँ की अधिकांश सड़कें पक्की हैं। 

यूरोप - सड़कों का सर्वाधिक घनत्व इस क्षेत्र में पाया जाता है। सड़कों के अधिक विस्तार का कारण औद्योगिक विकास एवं घनी जनसंख्या है। यहाँ विश्व की लगभग 20% सड़कें पायी जाती हैं, जिसमें से अधिकांश पक्की हैं।

रूस - यहाँ सरकार द्वारा यूराल के पश्चिम में अनेक राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण किया गया है, परंतु रूस का क्षेत्रफल अत्यधिक होने के कारण साइबेरिया और सुदूर उत्तरी भागों में सड़कों का विस्तार बहुत कम हुआ है। यहाँ का ट्रांस-साइबेरियन महामार्ग विश्व विख्यात है।

एशिया - एशिया के जापान, चीन, भारत में सड़कों का विकास सर्वाधिक हुआ है। जापान में सड़कों का घना जाल बिछा हुआ है। चीन के भी अधिकांश क्षेत्रों में सड़कों का विस्तार किया जा चुका है। भारत में सड़क महामार्गों का विकास भी तेजी से हो रहा हैं।

भारत में सड़कों का महत्व प्राचीनकाल से रहा है। जी. टी. रोड का निर्माण शेरशाह सूरी ने करवाया था। स्वतंत्रता के बाद नागपुर में एक समिति ने 10 वर्षीय सड़क विकास योजना तैयार की जो आगे चलकर नागपुर योजना कहलायी। इसके अंतर्गत अनेक सड़कों का विकास किया गया हैं। 

उत्तरी भारत की अपेक्षा दक्षिणी भारत में अधिक लंबी सड़कें पाई जाती हैं। दक्षिणी भारत पठारीय प्रदेश है। अत: वहाँ स्थानीय स्तर पर ही सड़क निर्माण सामग्री कंकड़, पत्थर आदि सुलभ हो जाता है। वर्तमान में प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के साथ-साथ अन्य कई योजनाओं द्वारा भारत में सड़कों का विकास किया जा रहा है।

भारतीय सड़क मार्गों की विशेषताएँ

  1. भारत में पक्की और कच्ची दो प्रकार की सड़कें पायी जाती हैं।
  2. भारत में सभी महामार्गों की कुल लम्बाई 31,358 कि.मी. है।
  3. प्रमुख मार्ग दिल्ली, मुम्बई, बंगलौर, चेन्नई, कोलकाता व श्रीनगर को मिलाते हैं।
  4. भारत के सीमा प्रदेशों में 7,000 किमी लंबी सड़कों का निर्माण किया गया है। 
  5. इन सड़कों पर लगभग 25 लाख मोटर गाड़ियाँ चलती हैं।

2. रेलमार्ग परिवहन

विश्व का प्रथम रेलमार्ग सन् 1825 में इंग्लैंड में निर्मित हुआ था। रेलगाड़ी का आविष्कार जार्ज स्टीफेंसन ने किया तथा प्रथम रेलगाड़ी सन् 1830 में मानचेस्टर से लिवरपुल तक चलायी गई। तत्पश्चात् इसका विस्तार विश्व के अन्य भागों में हुआ। विश्व में सर्वाधिक रेलमार्ग की लम्बाई उत्तरी अमेरिका में है। दूसरा स्थान सोवियत संघ का है। घनत्व के दृष्टिकोण से यूरोपीय देशों का स्थान सर्वोच्च है।

रेल परिवहन की विशेषताओं में माल को तीव्रता से ढोने की सुविधा मुख्य है। फसल एवं खनिजों को ढोने के लिए रेल-परिवहन ही सर्वश्रेष्ठ है। इसमें जलवायु संबंधी बाधाएँ नहीं होतीं तथा व्यय भी कम होता है। रेलमार्ग यद्यपि परिवहन का सस्ता और अच्छा साधन है, किन्तु रेलमार्ग का निर्माण सर्वत्र संभव नहीं है। इनके विकास में अग्रलिखित बातें प्रभाव डालती हैं

1. भौतिक कारक

धरातल - रेलमार्गों के विकास के लिए समतल मैदानी भाग अनुकूल रहते हैं। पर्वतीय, पठारीय भागों में धरातल के ऊँचे-नीचे होने के कारण चक्करदार मार्ग बनाने पड़ते हैं तथा स्थान-स्थान पर पुल एवं सुरंगों का निर्माण करना पड़ता है, जिससे रेलमार्ग बहुत खर्चीला हो जाता है ।

जलवायु - रेलमार्गों के विकास पर जलवायु का भी प्रभाव पड़ता है। अधिक वर्षा वाले भागों में भूमि दलदली होती है, जिससे रेलमार्ग बनाने में बाधा होती है। बाढ़ के समय रेलमार्गों के क्षतिग्रस्त होने के कारण घाटा उठाना पड़ता है। ठण्डे क्षेत्रों में रेलमार्गों के प्रयोग में कठिनाई पड़ती है। पटरियों पर बर्फ जम जाती है। शुष्क प्रदेशों में रेत जमा हो जाती है, जिनको हटाने में व्यय अधिक होता है।

2. आर्थिक कारक

खनिज संसाधन - खनिज संसाधनों के पूर्ण दोहन के लिए खनिज क्षेत्रों में रेलमार्गों का विकास हो जाता है। जैसे- बैलाडीला में लौह-खनिज ढोने के लिए विशाखापट्टनम से बैलाडीला तक रेलमार्गों का विकास हुआ है।

औद्योगिक विकास - किसी भी क्षेत्र में उद्योगों का विकास होने से वहाँ रेलमार्गों का भी विकास होता है, जैसे- भिलाई इस्पात कारखाना के बनने से भिलाई से दल्ली-राजहरा रेलमार्ग का विकास कच्चे माल की प्राप्ति हेतु किया गया है।

व्यापार की गति - जिन क्षेत्रों में व्यापार उन्नति पर होगा, रेलमार्गों का विस्तार अधिक हो जाता है, जैसे–पश्चिमी यूरोपीय देशों में व्यापार की गति तेज होने के कारण रेलमार्गों का जाल बिछा हुआ है। जबकि भारत में औद्योगिक विकास अपेक्षाकृत कम होने के कारण रेल मार्ग की लम्बाई कम है।

जनसंख्या का घनत्व - सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों में यात्रियों और माल का परिवहन अधिक होता है, अत: वहाँ रेलों का विकास हो जाता है। 

रेलमार्ग का विश्व विवरण

वितरण माल ढोने वाले परिवहन साधनों में रेलमार्ग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। रेलमार्गों की लम्बाइयों को किलोमीटर में जोड़ने पर ज्ञात होता है कि विभिन्न महाद्वीपों और देशों में निर्मित रेलमार्गों के वितरण में अत्यधिक भिन्नता है। यूरोप, पूर्व सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका में समस्त संसार के 65% रेलमार्ग हैं। लैटिन अमेरिका में 12%, भारत, चीन, जापान आदि एशिया के विभिन्न देशों में 12%, अफ्रीका में 5% एवं आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड में 3% रेलमार्ग हैं।

भारत में सन् 1853 में बम्बई और थाणे के बीच प्रथम रेलमार्ग बनाया गया उस समय से आज तक रेलमार्ग का विकास तेजी से हो रहा है। भारत में वर्ष में 2006 में रेलमार्गों की कुल लम्बाई 63,332 किमी थी। भारत में रेलमार्ग सबसे महत्वपूर्ण परिवहन का साधन है। यह कुल माल का 80% तथा सवारियों का 70% आबंटन इसी से होता है। प्रशासनिक सुविधा एवं कार्यकुशलता की दृष्टि से भारतीय रेल को विशिष्ट मंडलों में बाँटा गया है।

उत्तरी भारत में घनी जनसंख्या वाली गंगा की घाटी क्षेत्र में रेलमार्गों का जाल बिछा हुआ है। उत्तर में हिमालय क्षेत्र और प्रायद्वीप भारत में पूर्वी व पश्चिमी घाटों में रेलमार्गों का विकास कम हो पाया हैं।

जल परिवहन

जल परिवहन को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है -

1. आन्तरिक जलमार्ग

परिवहन, महाद्वीपों के आंतरिक भागों में नदियों, नहरों तथा झीलों द्वारा सम्पन्न होता है। इन नदियों द्वारा जल-परिवहन महत्त्वपूर्ण है। इनके द्वारा धातुएँ, कोयला, लकड़ी, जूट, कपास, नमक आदि वस्तुओं का परिवहन अधिक लाभकारी होता है। 

पठारीय, पर्वतीय एवं दलदली क्षेत्रों में जहाँ सड़कें बनाना अथवा रेलमार्ग का विकास करना अत्यन्त कठिन होता है, वहाँ नदियाँ यातायात का प्रमुख साधन होती हैं, जिस हेतु आदर्श भौगोलिक दशाएँ निम्नलिखित हैं -

  1. नदियाँ पर्याप्त जल वाली सदा प्रवाहिनी हों।
  2. नदी जल की प्रवाह गति मंद हो।
  3. नदी - मार्ग में जल प्रपातों का अभाव हो तथा नदी घाटी चौड़ी हो ।
  4.  नदियों के मुहाने जमाव रहित, स्वच्छ हों और ज्वार के समय उनका जल स्तर ऊँचा हो जाता हो।
  5. शीत ऋतु में नदी हिमाच्छादित न हो जाती हो।
  6. नदी सघन जनसंख्या वाले क्षेत्र से गुजरती हो। 
  7. नदी - मार्ग में औद्योगिक विकसित क्षेत्र पड़ता हो।

अंतर्देशीय जलमार्ग का विश्व -वितरण

अंतर्देशीय जलमार्गों के वितरण के दृष्टिकोण से निम्नलिखित क्षेत्र महत्त्वपूर्ण हैं- 1. यूरोप के अंतर्देशीय जलमार्ग - इस महाद्वीप में राइन, डेन्यूब, लोयर, सीन, नीपर, वोल्गा, बेजल आदि अनेक महत्वपूर्ण नदियाँ हैं। राइन नदी जर्मनी के विकास की आधार रेखा है। 

यह विश्व की सबसे व्यस्त नदी है। इसके द्वारा कोयला, लौह-इस्पात, खाद, अनाज एवं तैयार औद्योगिक सामान अत्यधिक मात्रा में ढोया जाता है। इस नदी को कोयला नदी भी कहा जाता है, क्योंकि इस नदी से होने वाले व्यापार में कोयले का विशेष स्थान है। 

डेन्यूब यूरोप की दूसरी महत्वपूर्ण नदी है । यह नदी जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, युगोस्लाविया आदि देशों से होकर बहती है। इस नदी द्वारा गेहूँ, चुकन्दर, राई, मक्का, खनिज पदार्थ एवं तैयार माल की ढुलाई की जाती है। सोवियत संघ की बोल्गा, डोन, यूराल नदियों को आपस में जोड़कर विशाल अंतर्देशीय एवं औद्योगिक प्रदेश का जलमार्ग बनाया गया है।

इसके द्वारा अनाज, लकड़ी व पेट्रोलियम आदि ढोया जाता है। फ्रांस में सीन, लायर एवं रोन को आपस में नहरों द्वारा जोड़ दिया गया है एवं इन्हें मार्सेलीस से पेरिस होकर ली-हावरे तक एवं दक्षिण-पश्चिम में लायर पर स्थित नेन्तेस नगर तक जोड़कर विशाल अंतर्देशीय जलमार्ग विकसित किया गया है। 

2. उत्तरी अमेरिका के अंतर्देशीय जलमार्ग - उत्तरी अमेरिका में निम्नलिखित दो अंतर्देशीय जलमार्ग

(i) महान झीलें - इस जलमार्ग द्वारा विश्व में सबसे अधिक भार ढोया जाता है। सेंट- लारेंस नदी महान झीलों को उत्तरी अटलांटिक महासागर से जोड़ती है। इस नदी को एक नहर बनाकर पाये जाते हैं।

ओन्टारियो झील से और इस झील को दूसरी नहर द्वारा ईरी झील से जोड़ा गया है तथा तीसरी नहर द्वारा ईरी झील को ओटायो नदी से जोड़ा गया है। नियाग्रा जल-प्रपात की बाधा को नहर बनाकर दूर किया गया है। इस जलमार्ग द्वारा दक्षिण-पूर्वी कनाडा तथा उत्तर-पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका को औद्योगिक प्रगति में सहायता मिली है।

(ii) नदी जलमार्ग  मिसीसिपी नदी अपनी अन्य सभी सहायक नदियों सहित लगभग 4,000 किमी लम्बा जलमार्ग प्रस्तुत करती है। मिसीसिपी तथा ओटायो नदियों को नहरों द्वारा महान झीलों से जोड़ दिया गया है। इस मार्ग द्वारा कोयला, पेट्रोलियम उत्पाद तथा निर्मित वस्तुएँ निर्यात की जाती हैं। 

मिसीसिपी नदी पर स्थित सेंट लुई कृषि क्षेत्र के मध्य में स्थित है। यहाँ कृषि उपजें (मक्का, गेहूँ, कपास, तम्बाकू आदि) एकत्रित कर निर्यात हेतु न्यू आर्लियन्स बंदरगाह तक इसी मार्ग से भेजी जाती हैं ।

3. दक्षिणी अमेरिका के अंतर्देशीय जलमार्ग - इस महाद्वीप में अमेजन, पेराना, पेराग्वे, ओरीनिको एवं मेगडेबिना नदियाँ प्रमुख हैं। अमेजन महान जलमार्ग बनाती है, जिसमें लगभग 4,000 किमी तक नावें एवं 1,600 किमी तक जहाज चलायी जा सकती हैं, किन्तु अविकसित प्रदेश होने के कारण इस नदी का उपयोग अधिक नहीं हो पाता। 

यहाँ से रबर, लकड़ी एवं कहवा आदि वस्तुओं का परिवहन होता है। इस महाद्वीप का उत्तम जलमार्ग पेराना-पेराग्वे नदियाँ मिलकर (लाप्लाटा) ब्यूनस आयर्स से 2,800 किमी तक अंतर्देशीय जलमार्ग बनाती हैं।

4. एशिया के अंतर्देशीय जलमार्ग – इस महाद्वीप में चीन व भारत में नदी मार्गों की उपयुक्त सुविधाएँ हैं। चीन में यांगटिसीक्यांग ह्वांगहो तथा सिक्यांग नदियाँ परिवहन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं | इन नदियों से कोयला, अनाज, चाय, रेशम, कपास, सूती- वस्त्र आदि अनेक वस्तुएँ ढोयी जाती हैं। 

भारत में जलमार्ग का विकास अधिक नहीं हो पाया है। फिर भी गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी नदियों में नाव द्वारा अनेक वस्तुएँ ढोयी जाती हैं, जिनमें से कपास, जूट, चाय, अनाज, कोयला आदि महत्त्वपूर्ण हैं ।

5. अफ्रीका के अंतर्देशीय जलमार्ग – इस महाद्वीप में नील, नाइजर, कांगो आदि प्रमुख नदियाँ हैं। नाइजर नदी में लगभग 1,500 किमी तक जहाज चलते हैं। कांगो नदी में 3,700 किमी तक जहाज एवं 11,000 किमी तक नावें चलायी जा सकती हैं। 

नील नदी के केवल डेल्टाई क्षेत्र में ही नावें चलायी जा सकती हैं । अफ्रीका महाद्वीप अभी भी अविकसित स्थिति में है, यहाँ के भूमध्यरेखीय क्षेत्र दलदली, पठारी तथा सघन वनों से आच्छादित हैं। अतः नदियाँ ही एकमात्र परिवहन के साधन हैं।

6. आस्ट्रेलिया के अंतर्देशीय जलमार्ग - इस महाद्वीप में मात्र डार्लिंग व मरे नदियाँ ही परिवहन के योग्य हैं। इन नदियों से ऊन, मांस, गेहूँ, कपास, लोहा आदि वस्तुएँ ढोयी जाती हैं ।

समुद्री मार्ग से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सम्पन्न होते हैं। इसमें ईंधन का व्यय कम होता है तथा रेल की अपेक्षा 4-5 गुना अधिक भार का माल ढोया जाता है । एक जलयान से 8,000 से 10,000 टन तक भार का माल ढोया जा सकता है। 

आजकल तो और अधिक भार ढोने वाले जलपोतों का निर्माण हो गया है। पन्द्रहवीं शताब्दी में पालदार जहाज चलने लगे थे, जो हवाओं के सहारे चलते थे । तत्पश्चात् इनमें सुधार हुआ है। इससे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दूरस्थ देशों से भारी एवं हल्की सभी प्रकार के मालों का पहुँचना सुलभ हो गया है। 

समुद्री परिवहन को प्रभावित करने वाली दशाएँ

समुद्री परिवहन का कहाँ-कितना विकास सम्भव हो पायेगा, यह निम्नलिखित बातों पर निर्भर है

1. भौतिक दशाएँ 

  1. जहाँ समुद्री तट अत्यधिक ठण्ड के कारण हिम से जम जाते हैं, वहाँ समुद्री मार्ग बंद हो जाते हैं।
  2. जिन तटों पर कुहरा छाया रहता है, वहाँ परिवहन में बाधा पड़ती है।
  3. जिन समुद्री क्षेत्रों में हिमपिंड बहकर आते हैं, उन भागों में से होकर समुद्री मार्ग नहीं जाते है।
  4. स्थायी हवाओं और धाराओं का भी समुद्री मार्गों पर प्रभाव पड़ता है। 

2. आर्थिक दशाएँ

  1. आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न देशों के समुद्र तट के निकट समुद्री मार्गों का विकास अधिक होता है।
  2. जलयान ऐसे बंदरगाहों से भी गुजरते हैं जहाँ कोयला लेने की सुविधा होती है ।
  3. जिन देशों के बंदरगाहों पर यात्रियों और व्यापारियों को अधिक सुविधाएँ मिलती हों। 
  4. उन बंदरगाहों में जलयान कम गुजरते हैं जहाँ आयात निर्यात पर प्रतिबंध होता है।

2. विश्व के प्रमुख सामुद्रिक मार्ग

1. उत्तरी अटलांटिक मार्ग  - यह विश्व के व्यस्ततम मार्गों में से एक है। इस मार्ग द्वारा विश्व के दो औद्योगिक क्षेत्रों को जोड़ा गया है। एक ओर संयुक्त राज्य अमेरिका एवं कनाडा का पूर्वी भाग है, तो दूसरी ओर पश्चिमी यूरोप के औद्योगिक देश हैं । जनसंख्या का संकेन्द्रण इन्हीं दोनों क्षेत्रों में हुआ है । 

इन देशों के निवासियों का जीवन स्तर उच्च है, जिससे इन क्षेत्रों में वस्तुओं की खपत अधिक है। अतः व्यापार अधिक होता है। इस मार्ग में विश्व के 50 बड़े पत्तनों में से 30 पत्तन स्थित हैं। इस मार्ग में 300 कम्पनियों के जलपोत चलते हैं। इन दोनों क्षेत्रों में विश्व का अधिकांश औद्योगिक उत्पादन होता है । 

इस मार्ग पर पश्चिमी यूरोप के बंदरगाह ग्लासगो, लिवरपूल, मानचेस्टर, साउथ हैम्पटन, लंदन, लिस्बन, रॉटर्डम, हैम्बर्ग, रोम, नेपिल्स आदि हैं। उत्तरी अमेरिका के पूर्वी किनारे के मुख्य बंदरगाहों में क्यूबेक, मांट्रियल, हैलिफेक्स, न्यूयार्क, फिलाडेल्फिया, बाल्टीमोर, गेलवेस्टन, न्यू आर्लियन्स आदि हैं।

व्यापार – इस मार्ग द्वारा यूरोप को संयुक्त राज्य अमेरिका से कपास, कोयला, पेट्रोलियम, गेहूँ, मांस, लौहइस्पात, कृषि यंत्र, मोटर कार, वस्त्र व तैयार माल आदि तथा कनाडा से गेहूँ, आटा, दुग्ध पदार्थ, ताँबा, एस्बेस्टस, लकड़ी, लुग्दी, कागज आदि सामान भेजा जाता है। उत्तरी अमेरिका को यूरोप से मशीनें, दवाइयाँ रासायनिक पदार्थ एवं तैयार माल आदि निर्यात होता है। 

2. दक्षिणी अटलांटिक मार्ग - दक्षिणी अटलांटिक मार्ग की मुख्य तीन शाखाएँ हैँ – 

  1. न्यूयार्क से केपटाउन मार्ग
  2. लन्दन- रियोडिजेनेरो मार्ग
  3. पश्चिमी अफ्रीकन तटीय मार्ग 

इन मार्गों पर उत्तर अटलांटिक मार्ग की अपेक्षा बहुत कम यातायात होता है, क्योंकि दक्षिणी अटलांटिक तटीय प्रदेश लगभग समान उत्पाद वाले क्षेत्र हैं और इनका आर्थिक तथा औद्योगिक विकास नहीं हुआ है। 

दक्षिणी अमेरिका के पूर्वी तटीय प्रदेशों से यूरोपीय देशों को खाद्य पदार्थ, पशु उत्पाद, कहवा, कपास आदि का निर्यात किया जाता है तथा यूरोपीय देशों से इनको निर्मित माल प्राप्त होता है।

3. उत्तमाशा अंतरीप मार्ग - इस मार्ग द्वारा उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट एवं यूरोप के पश्चिमी तट के बंदरगाहों का संबंध अफ्रीका, दक्षिणी एवं पूर्वी एशिया, आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैण्ड से स्थापित होता है। स्वेज नहर बनने के पूर्व इस मार्ग का बहुत अधिक महत्व था । यह मार्ग दक्षिण अफ्रीका के केप ऑफ गुड होप से होकर जाता है। 

यहाँ केपटाउन बंदरगाह स्थित है। जहाँ इस मार्ग पर आनेजाने वाले जलयानों को ठहरना ही पड़ता है। यह स्थान दोनों ओर से काफी दूरी पर स्थित है, इसलिए यहाँ कोयला, पेट्रोलियम आदि लेने एवं विश्राम करने तथा माल उतारने एवं चढ़ाने के लिए जहाजों को रूकना आवश्यक होता है। 

इस मार्ग पर स्वेज नहर बन जाने से केवल बड़े-बड़े जलयान ही चलते हैं। इस मार्ग पर प्रमुख बंदरगाह न्यूयार्क, लंदन, केपटाउन, कोलम्बो, पर्थ, एडीलेड, मेलबोर्न, सिडनी तथा सिंगापुर हैं। 

व्यापार – इस मार्ग द्वारा पूर्व से पश्चिम की ओर कच्चा माल तथा पश्चिम से पूर्व की ओर तैयार माल का निर्यात होता है। अफ्रीका से सोना, जस्ता, ताँबा, लोहा, सीसा, मैंगनीज, कपास, तम्बाकू, कहवा, चमड़ा, गोंद, मांस, ताड़ का तेल, शुतुरमुर्ग के पंख आदि तथा आस्ट्रेलिया से गेहूँ, ऊन तथा सोना; न्यूजीलैंड से डेयरी पदार्थ (मक्खन एवं पनीर); एशिया के रबड़, टिन, मसाले, नारियल, पेट्रोलियम, चाय आदि यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका को जाता है। 

यूरोप एवं उत्तरी अमेरिका से विविध प्रकार की मशीनें, कृषि उपकरण, मोटरें, रासायनिक पदार्थ तथा अन्य निर्मित वस्तुएँ अफ्रीका, एशिया एवं आस्ट्रेलिया आदि देशों को निर्यात की जाती हैं।

4. प्रशांत महासागरीय मार्ग - प्रशांत महासागरीय मार्ग उत्तरी अमेरिका व दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तटों को पूर्वी एशियाई तटों तथा आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैण्ड के तटों से जोड़ते हैं। 

5. हिन्द महासागरीय मार्ग - यह मार्ग हिन्द महासागर के सीमावर्ती क्षेत्रों (तटवर्ती क्षेत्रों) को आपस में जोड़ता है, जिससे उनके मध्य पारस्परिक व्यापार सुगम हो जाता है। भारत से चाय, जूट, सूती-वस्त्र, सीमेंट, इस्पात, मशीनें एवं अन्य तैयार सामान पूर्वी अफ्रीका, पश्चिम एशिया, पूर्वी देशों व आस्ट्रेलिया आदि देशों को निर्यात करता है। 

बर्मा से चावल, खनिज तेल तथा लकड़ी; जावा से शक्कर, तम्बाकू, गरम मसाले; मलाया से रबर व टिन; आस्ट्रेलिया से गेहूँ, मांस तथा सोना; अरब देशों द्वारा पेट्रोलियम का निर्यात अन्य हिन्द महासागरीय देशों को किया जाता है। प्रमुख बन्दरगाह कोलकाता, चेन्नई, मुम्बई, कोलम्बो, कराची, रंगून, सिंगापुर, पर्थ, डर्बन तथा नैरोबी आदि हैं।

6. भूमध्यसागरीय मार्ग - यूरोप को एशिया एवं अफ्रीका से जोड़ने वाला यह महत्वपूर्ण जल मार्ग है, अतः व्यापारिक दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण जलमार्ग है। 

इस मार्ग द्वारा एशिया व अफ्रीका के देश यूरोप के देशों को कच्चा माल, चावल, गेहूँ, शक्कर, चाय, कहवा, तिलहन, चमड़ा, मसाला तथा पेट्रोलियम भेजते हैं तथा यूरोपीय देश बदले में तैयार औद्योगिक सामान, मशीनें, रासायनिक पदार्थ, कागज व इंजीनियरिंग सामान भेजते हैं। भूमध्य सागर के प्रमुख बंदरगाह रोम, काहिरा, तेल अबीब, पोर्ट सईद इत्यादि हैं।

स्वेज नहर मार्ग

यह नहर भूमध्य सागरीय मार्ग पर स्थित है। यह स्वेज स्थलडमरूमध्य को काटकर बनायी गयी है। के यह भूमध्य सागर को लाल सागर से जोड़ती है। इसका निर्माण कार्य सन् 1869 में फ्रांसीसी इंजीनियर फर्डिनेण्ड डी-वैसेप्स के निर्देशन में प्रारंभ हुआ । 

यह सन् 1869 में बनकर तैयार हो गयी । यह नहर सन् 1956 के बाद से मिस्र के अधिकार में है। इस नहर की लम्बाई 165 किमी है। इसकी कम से कम चौड़ाई 50 मीटर और गहराई 11

मीटर है। इस नहर को पार करने में 11  घण्टे 30 मिनट लगते हैं। इस नहर के भूमध्य सागरीय तट पर पोर्ट सईद बन्दरगाह है। दूसरे छोर पर लाल सागर में पोर्ट तौफीक बंदरगाह स्थित है।

स्वेज नहर का महत्त्व – इसके बनने से इस ओर की समुद्री परिवहन में दूरी एवं समय में कमी हो गयी है । जैसे- मुम्बई से लिवरपूल के बीच 8,000 किमी की तथा लन्दन एवं सिडनी की दूरी में 1,600 किमी की कमी हुई है, जिसके फलस्वरूप पूर्वी एवं पश्चिमी देशों के व्यापार में वृद्धि हुई है।

स्वेज नहर द्वारा व्यापार – इस मार्ग में प्रमुख जिब्राल्टर, माल्टा, स्वेज, अदन, मुम्बई बंदरगाह हैं। यूरोपीय देशों से मशीनें, लोहे का सामान, कोयला, विभिन्न प्रकार की बनी हुई वस्तुएँ भेजी जाती हैं। पूर्वी देशों से खाद्य पदार्थ एवं कच्चा माल भेजा जाता है। भारत से मैंगनीज, चाय, अभ्रक, जूट का सामान, सागौन लकड़ी, मसाले आदि; आस्ट्रेलिया से गेहूँ, ऊन, सोना, ताँबा तथा श्रीलंका से चाय, बांग्लादेश से जूट, फारस की खाड़ी के देशों से पेट्रोलियम आदि का निर्यात होता है। 

पनामा नहर

अटलांटिक महासागर को प्रशांत महासागर से जोड़ने वाले इस महत्वपूर्ण नहर का निर्माण सन् 1914 में हुआ। पनामा नहर जलडमरूमध्य को काटकर बनाई गयी है । यह अटलांटिक महासागर के तट पर स्थित कोलन से प्रशांत तट पर स्थित पनामा बन्दरगाह को जोड़ती है । यह क्षेत्र पर्वतीय है, इसलिए इसमें तीन स्थानों पर लॉक्स बनाये गये हैं। इस नहर का सबसे ऊँचा भाग समुद्र तल से 26 मी ऊँचा है। 

इसकी लम्बाई 80 किमी, चौड़ाई 90 मी तथा गहराई 12 मी है। एक जहाज को पार करने में 7 से 8 घण्टे का समय लगता है। इस पर संयुक्त राज्य अमेरिका का अधिकार है, क्योंकि इसी के प्रयास से यह बनकर तैयार हुई है।

पनामा नहर का महत्त्व – इसके बनने से सबसे अधिक लाभ संयुक्त राज्य अमेरिका को हुआ है। इसके पश्चिमी तटों पर स्थित बंदरगाहों की दूरी पूर्वी तटों पर स्थित बंदरगाह से बहुत कम हो गई है। न्यूयार्क से सेनफ़्रांसिस्को की दूरी में 1,300 किमी

की बचत हुई है। पहले जहाजों को दक्षिणी अमेरिका के पूर्वी भागों से पश्चिमी भागों में जाने के लिए केप हार्न से होकर जाना पड़ता था। अब सभी जहाज सीधे पनामा नहर से होकर जाते हैं।

नहर द्वारा होने वाले व्यापार – इस नहर के निर्माण से संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वी एवं पश्चिमी तट की दूरी काफी कम हो गई है, जिससे इनके मध्य व्यापार में अत्यधिक वृद्धि हुई है। पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका से विविध प्रकार की निर्मित सामग्री, खाद्य पदार्थ एवं कोयला जाते हैं तथा पश्चिमी संयुक्त राज्य अमेरिका से लकड़ी, कागज, डिब्बाबंद मछली, फल, ताँबा, टिन, बनस्पति तेल आदि आते हैं। 

इसी प्रकार इस नहर के द्वारा न्यूजीलैण्ड से पनीर, मक्खन, भेड़ का मांस, जापान से रेशम आदि भेजे जाते हैं। सेनफ्रांसिस्को आदि पश्चिमी क्षेत्रों में ग्रेट ब्रिटेन आदि नगरों को खनिज पदार्थ भेजे जाते हैं।

अन्य देशों से इस मार्ग द्वारा दक्षिणी अमेरिका के चिली से शोरा, बोलिविया से चाँदी आदि ढोयी जाती है। कोलम्बिया एवं वेनेजुएला का पेट्रोलियम संयुक्त राज्य अमेरिका को इसी मार्ग से भजा जाता है।

विश्व के प्रमुख बंदरगाह

थल एवं जल के मिलन स्थल तट पर स्थित वह स्थान जो जलमार्गों और स्थापित करता है, पत्तन या बन्दरगाह कहलाता है, जैसे- मुम्बई, न्यूयार्क, कोलम्बो - आदि । इस पत्तन के द्वारा ही देश का माल विदेशों को भेजा जाता है और विदेशों से भी माल इसी पत्तन के द्वारा देश के भीतरी भागों में पहुँचाया जाता है। 

पत्तन पर जलयान आकर ठहरते हैं, वहीं पर आयातित माल उतारा जाता है और पत्तन के पृष्ठ क्षेत्र का उत्पादित माल पत्तन पर ही एकत्रित कर निर्यात किया जाता है। साथ ही यहाँ जहाजों की मरम्मत, देखभाल एवं ईंधन आदि की पूर्ति की जाती है। एक आदर्श प्राकृतिक पत्तन के लिए अग्रांकित दशाओं का होना आवश्यक होता है

  1. तट तक जल की गहराई पर्याप्त हो ।
  2. सुरक्षित एवं विस्तृत पोताश्रय उपलब्ध हो । 
  3. पत्तन पर गोदामों, माल उतारने के प्लेटफार्मों की सुविधाएँ हों ।
  4. पृष्ठ या पश्चभूमि सम्पन्न, सघन जनसंख्या वाली एवं उन्नत परिवहन साधनों से युक्त हो । 
  5. औद्योगिक प्रगति अच्छी हुई हो ।
  6. सागर तट शीत ऋतु में जमता न हो ।

पृष्ठ प्रदेश - स्थल भाग पर पत्तन के पीछे का वह समस्त भूखण्ड जो उस पत्तन के माध्यम से आयातित माल से एवं अपने यहाँ के उत्पाद के निर्यात व्यापार से लाभान्वित होता है, उस पत्तन का पृष्ठ या पश्च प्रदेश कहलाता है ।

1. न्यूयार्क - संयुक्त राज्य अमेरिका के उत्तर-पूर्वी न्यूयार्क पत्तन स्थित है। यह विश्व का सबसे बड़ा समुद्री पत्तन तथा प्रथम श्रेणी का अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक केन्द्र है। न्यूयार्क से नियमित व्यापारिक परिवहन यूरोपीय, दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, एशिया, आस्ट्रेलिया आदि महाद्वीपों के देशों को अटलांटिक, प्रशांत एवं हिंद महासागर के समुद्री मार्गों द्वारा होता रहता है। 

यहाँ का मुख्य आयात रेशम, चाय, कहवा, शक्कर, जूट, तिलहन, लकड़ी तथा लुग्दी है । प्रमुख निर्यात की वस्तुएँ इस्पात, मोटर कार, कृषि यंत्र, मशीनें, वैज्ञानिक उपकरण, रासायनिक पदार्थ, गेहूँ, सेब, तम्बाकू आदि हैं। ट्रैंटन से, ब्राइटन बर्मिघम से बोस्टन से साल्सबरी तट पर हडसन नदी के मुहाने पर लंदन कैम्ब्रिज से

2. लंदन – यह पत्तन टेम्स नदी के मुहाने पर समुद्र से लगभग 65 किमी की दूरी पर स्थित है। इसका पृष्ठ प्रदेश घनी आबादी वाला एवं औद्योगिक प्रदेश है । यह विश्व का सबसे बड़ा पुनर्निर्यात केन्द्र है।

3. सिंगापुर – यह हिंद महासागर का श्रेष्ठ बंदरगाह माना जाता है । यह दक्षिण-पूर्वी एशिया का सबसे बड़ा व्यापारिक केन्द्र है। यहाँ से चाय, रबर, चीनी, मसाले, टिन आदि का निर्यात किया जाता है, यहाँ के प्रमुख आयात में इस्पात निर्मित वस्तुएँ, मशीनें तथा वैज्ञानिक उपकरण इत्यादि हैं । 

4. हांगकांग - चीन के पूर्वी समुद्र तट के पास ही हांगकांग द्वीप है। इसी के उत्तर पश्चिमी भाग में हांगकांग नगर स्थित है। मुम्बई की तरह यह भी प्राकृतिक बंदरगाह है। पहले यह ग्रेट ब्रिटेन के आधिपत्य में था, किन्तु अब इसे चीन को सौंप दिया गया है। 

यहाँ पर स्वतन्त्र व्यापार प्रणाली है। यहाँ की प्रमुख निर्यात की वस्तुएँ चाय, चीनी, रेशम, कपूर, टिन, अफीम, तेल व कपास हैं। मशीनें, चावल, वस्त्र, मोटर-कार और इस्पात यहाँ के प्रमुख आयात की वस्तुएँ हैं।

5. टोकियो राजधानी है। इस पत्तन पर जल की गहराई अधिक नहीं है, जिस कारण यह सामान्य गहराई के पोतों को ही आश्रय दे पाता है तथापि यह महत्वपूर्ण बंदरगाह है। जापान का 25% व्यापार यहीं से होता है। यहाँ आयात की जाने वाली वस्तुएँ पेट्रोलियम, कॉफी, खनिज पदार्थ, दुग्ध सामग्री, खाद्यान्न, चमड़ा आदि हैं। 

निर्यात किये जाने वाले पदार्थों में मशीनें, वस्त्र, जलपोत, रासायनिक पदार्थ, मोटर- गाड़ियाँ, कागज एवं विद्युत् उपकरण मुख्य हैं ।

6. सिडनी  यह आस्ट्रेलिया के दक्षिणपूर्वी तट पर स्थित है। यहाँ से ऊन, कोयला, गेहूँ, मांस और फलों का निर्यात किया जाता है तथा मशीनें, कपड़े, रासायनिक पदार्थ इत्यादि आयात किये जाते हैं। यहाँ रेल के इंजन, चीनी, साबुन व मशीनें आदि बनाने के कारखाने हैं । 

7. मुम्बई यह भारत का प्रमुख पत्तन है। यहाँ का प्राकृतिक पत्तन उत्तम और सुरक्षित है। यहाँ से सूती वस्त्र, कपास, खालें, मशीनें, चीनी, कृत्रिम रेशा, प्लास्टिक सामान इत्यादि का निर्यात किया जाता है तथा कृषि यंत्र, उर्वरक, पेट्रोलियम, रबर, कागज, वैज्ञानिक उपकरण, मोटरकार इत्यादि आयात किये जाते हैं ।

वायु परिवहन

वायु-परिवहन अत्यंत तीव्रगामी, परन्तु महँगा परिवहन साधन है। यह धरातलीय बाधाओं से मुक्त होता है। बाढ़, सूखा तथा युद्धकाल आदि विपरीत स्थितियों में वायु परिवहन की सेवाएँ अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं। इसके सम्पर्क से सम्पूर्ण विश्व एक सूत्र में बँध गया है। 

दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि पूरा विशाल विश्व सिकुड़ गया है। यह परिवहन आज की प्रगति का मापदंड समझा जा रहा है। महत्त्व – वायुमार्गों का आधुनिक समय में सबसे अधिक महत्त्व है।

  1. यह परिवहन तीव्रगामी साधन है। इससे अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन को अधिक प्रोत्साहन मिलता है। 
  2. वायुमार्ग द्वारा यात्रियों, डाक, बहुमूल्य पदार्थ एवं शीघ्र खराब होने वाले खाद्य पदार्थों का परिवहन मुख्य है।
  3. इसके द्वारा पर्वतीय, मरुस्थलीय एवं महासागरीय क्षेत्रों की यात्रा सुगमतापूर्वक की जा सकती है । 
  4. बाढ़, अकाल या युद्ध के समय इसके द्वारा राहत कार्य पहुँचाने में सुविधा रहती है। 
  5. वायु परिवहन द्वारा विश्व में कोई भी देश किसी देश से तुरन्त संबंध स्थापित कर सकते हैं। 

वायु परिवहन को प्रभावित करने वाले कारक

जलवायु - वायुयानों की उड़ान पर वायुमण्डलीय दशाओं का विशेष प्रभाव पड़ता है। तेज आँधियाँ, धुन्ध, कोहरा, घनी वर्षा और हिमपात जैसी दशाओं में वायुयान उड़ना असंभव भी हो जाता है।

भूमि की बनावट - हवाई अड्डों का निर्माण समतल एवं कठोर भूमि पर किया जाता है, जिससे जहाजों को उड़ने एवं उतरने में सुविधा होती है। मार्ग में आने वाली पर्वत श्रेणियों, दलदलों, झीलों, सागरों एवं वन क्षेत्रों को ध्यान में रखकर इसके मार्ग निश्चित किये जाते हैं। वायु परिवहन को प्रभावित

आर्थिक दशाएँ - यह परिवहन उन देशों में अधिक विकसित है, जहाँ आर्थिक उन्नति अधिक हुई है, क्योंकि इन उन्नत क्षेत्रों में ही यात्री तथा ढुलाई के माल पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं, इसलिए संयुक्त राज्य अमेरिका व सोवियत संघ में वायु परिवहन का अधिक विकास हुआ है।

सुरक्षा - वायुयान उड़ानों के मार्ग यथासंभव वृहद वृत्तों का अनुसरण करते हुए निश्चित दिशाओं में निर्धारित किए जाते हैं और भिन्न-भिन्न दिशाओं में उड़ने वाले वायुयानों को विभिन्न ऊँचाइयों पर उड़ाया जाता है।  

हवाई अड्डों पर आवश्यक सुविधाएँ - वायुयानों को उड़ान भरने और उतरने के लिए चौरस भूमि का दौड़- -पथ आवश्यक होता है। यात्रियों और माल को लाने ले जाने के लिए मोटर गाड़ियों, सीढ़ियों, लादने - उतारने की व्यवस्था, आराम, प्रकाश, राडार और रेडियो का समुचित प्रबंध हवाई अड्डे पर होने चाहिए।

राजनैतिक कारक उस वायुमण्डल को वायुयानों - प्रत्येक राष्ट्र की भूमि के ऊपर का वायुमण्डल उस राष्ट्र की संपत्ति होती है और द्वारा पार करने के लिए सम्बन्धित राष्ट्र की अनुमति आवश्यक होती है। 

भारत में वायु परिवहन 

भारत विश्व के पूर्व एवं पश्चिम के मध्य वायुमार्गों का केन्द्र है, भारत में इस समय चार अंतर्राष्ट्रीय वायुपत्तन हैं - सांताक्रुज (मुम्बई), पालम (इंदिरा गांधी) दिल्ली, दमदम (कोलकाता), मीनाम्बकम् (चेन्नई) ।

भारत में वायुमार्ग

  1. दिल्ली - मुम्बई मार्ग - दिल्ली, जयपुर, उदयपुर, अहमदाबाद, मुम्बई । 
  2. दिल्ली - कोलकाता मार्ग - दिल्ली, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, कोलकाता।
  3. दिल्ली - चेन्नई मार्ग - दिल्ली, नागपुर, काजीपेट, चेन्नई। 
  4. मुम्बई - कोलकाता मार्ग- मुम्बई, औरंगाबाद, नागपुर, कोलकाता।
  5. मुम्बई, हैदराबाद, चेन्नई।
  6. कोलकाता, विशाखापट्टनम, चेन्नई, त्रिचनापल्ली, कोलम्बो । 
  7. मुम्बई, कोचीन, तिरुअनन्तपुरम।
  8. दिल्ली, पटना, गोहाटी, डिब्रूगढ़।  
  9. दिल्ली, श्रीनगर।

पाइप लाइन

पेट्रोलियम पदार्थों को उत्पादन क्षेत्र से उपभोक्ता क्षेत्र तक बिना हानि के पहुँचाने के लिये आजकल मोटी तथा लम्बी पाइप लाइनों का उपयोग किया जाता है। यह एक आधुनिक परिवहन साधन है। इसके प्रमुख क्षेत्र अग्रांकित हैं

1. संयुक्त राज्य अमेरिका - यहाँ पाइप लाइनें पेट्रोलियम उत्पादन केन्द्रों से उपभोक्ता केन्द्रों तक फैली हुई हैं। इन पाइप लाइनों की लम्बाई यहाँ के रेलमार्गों से अधिक है। महत्वपूर्ण पाइप-लाइनें खाड़ी तटीय तेल क्षेत्र के केन्द्रों से उत्तर-पूर्व में स्थित उपभोक्ता क्षेत्रों तक विस्तृत हैं। 

दूसरी मुख्य पाइप लाइन अलास्का के उत्तरी तट से संयुक्त राज्य अमेरिका को पेट्रोलियम लाती है। प्राकृतिक गैस परिवहन हेतु पाइप लाइनें टेक्सास गैस क्षेत्र से उत्तर -पूर्वी और पश्चिमी भागों को जाती हैं।

2. यूरोप– पश्चिमी तटीय यूरोप के बंदरगाहों पर आयातित पेट्रोलियम एकत्रकर शोधित किया जाता है। तदनन्तर इसे पाइप लाइनों द्वारा आंतरिक औद्योगिक केन्द्रों तथा घरेलू मण्डियों में वितरित किया जाता है। यह वितरण इटली, फ्रांस, हॉलैण्ड, जर्मनी और नीदरलैण्ड को किया जाता है। इन पाइप लाइनों द्वारा पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस का परिवहन होता है।

यूरोपीय सोवियत संघ में पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस परिवहन करने वाली लम्बी-लम्बी पाइप लाइनें बिछी हुई हैं। ये पाइप लाइनें यूराल के पूर्व के क्षेत्र तथा वोल्गा तेल क्षेत्र को पूर्वी, साम्यवादी यूरोपीय देशों से जोड़ती हैं। 

वोल्गा तेल क्षेत्र से पूर्वी यूरोप के इन देशों तक अशुद्ध तेल ले जाने के लिए 4,400 किमी लम्बी ट्रांस-कान्टिनेन्टल कोमकान पाइप लाइन डाली गई है। इसे 'मैत्री पाइप लाइन' भी कहते हैं।

3. पश्चिमी एशिया – पश्चिमी एशियाई देशों में पाइप लाइन का उपयोग पेट्रोलियम को तेल केन्द्रों से ईरान या फारस की खाड़ी तथा भूमध्यसागर-तट पर स्थित बंदरगाहों के लिए किया जाता है। एक पाइप लाइन फारस खाड़ी तेल क्षेत्र से भूमध्यसागर-तटों पर स्थित सिडोन बंदरगाह तक बिछी है। 

दूसरी पाइप लाइन त्रिपोली पत्तन को इराक से और एक पाइप लाइन किरकुक से वनियास को जोड़ती है। ट्रांस- अरेबियन पाइप-लाइन (रासतनोरा से सिडोन) की लम्बाई 1,707 किमी है और किरकुक वनियास पाइप लाइन 896 किमी लम्बी है ।

4. भारत – भारत में पाइप लाइनों का उपयोग पेट्रोल, प्राकृतिक गैस तथा दुग्ध के परिवहन में किया जाता है। प्रमुख पाइप लाइनें निम्नांकित हैं -

  1. डिगबोई असम से बरौनी बिहार, इसी को कानपुर तक बढ़ा दिया गया है ।
  2. डिगबोई से नूनमाटी तक ।
  3. सलाया से मथुरा तक, यह 1,219 किमी लम्बी है।
  4. सलाया से करनाल तक ।
  5. मथुरा- दिल्ली-जालंधर तक।
  6. हजीरा से बीजापुर - जगदीशपुर तक, इसकी लम्बाई 1,758 किमी है।
  7. आनन्द से अहमदाबाद तक दुग्ध पाइप लाइन।

वर्तमान समय में पाइप-लाइनों का उपयोग कोयला, दुग्ध, रसायन, अनाज तथा खनिज पदार्थों के परिवहन में किया जाने लगा है। एक पाइप लाइन पिट्सबर्ग को क्लीवलैण्ड से जोड़ती है। इसके द्वारा कोयला ढोया जाता है। कोयला को पीसकर उसमें जल मिलाकर तरल बना लिया जाता है। 

यह पाइप लाइन 168 किमी लम्बी है। भारत में कुद्रेमुख से मंगलौर बंदरगाह तक परिष्कृत लोहे के पेलेट्स ढोयी जाती हैं। फ्रांस, स्विट्जरलैण्ड तथा आस्ट्रिया के पर्वतीय भागों से पाइप लाइनों द्वारा दुग्ध मैदानी क्षेत्रों के नगरों को पहुँचाया जाता है ।

संचार के साधन

संचार वह माध्यम या साधन है, जिसके द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान को संदेश, सूचनाएँ आदि प्रेषित की जाती हैं। प्राचीनकाल में संदेशों के संप्रेषण के लिए कबूतरों का प्रयोग किया जाता था । 

16 वीं सदी में डाक व्यवस्था का सूत्रपात हुआ और आज का मानव जनसंचार के आधुनिकतम साधनों फोन, फैक्स, उपग्रह इत्यादि का प्रयोग कर रहा है। 

आशय यह है कि जनसंचार की इस तीव्र प्रगति के कारण किसी भी स्थान की जानकारी कुछ ही समय में समस्त विश्व को दी जा सकती है, इसी कारण संसार को सिकुड़ते विश्व की संज्ञा दी जाती है। वर्तमान में जनसंचार के निम्नलिखित महत्वपूर्ण साधन हैं

1. डाक एवं तार - संचार के साधनों में डाक द्वारा संदेश भेजने का ढंग सबसे पुराना है। परिवहन के साधनों में विकास होने के साथ-साथ अब डाक-व्यवस्था में पर्याप्त सुधार हो गया है। 

डाक द्वारा संदेश भेजना  आज भी सबसे सस्ता साधन है। इसके द्वारा मुख्यतः राजकीय, व्यापारिक तथा व्यक्तिगत संदेशों को पत्रों व पार्सलों द्वारा देश एवं विश्व के कोनेकोने तक भेजा जाता है। आजकल डाक को शीघ्रता से भेजने के लिए इलेक्ट्रॉनिक मेल का उपयोग किया जाता है। यह प्रणाली टेलेक्स एवं फैक्स से सस्ती पड़ती है। 

तार द्वारा संदेश तीव्रगति से पहुँचाया जाता है। इस विधि में संदेश को सांकेतिक भाषा द्वारा यंत्रों की सहायता से विद्युत् चुम्बकीय तरंगों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान को भेजा जाता है।

2. समाचार पत्र - समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ विचार अभिव्यक्ति का सबसे सरल, सुलभ, सस्ता एवं सशक्त साधन है। देश-विदेश में घटित होने वाली घटनाओं की विस्तृत जानकारी समाचार पत्र-पत्रिकाओं द्वारा फैलती है। वास्तव में समाचार पत्र आधुनिक सभ्यता का प्रकाश स्तम्भ है। समाचार पत्र दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक हो सकते हैं।

भारत की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इण्डिया' है । यह हिन्दी एवं अंग्रेजी में समाचार सेवाएँ देता है। महाराष्ट्र का गुजराती “दैनिकं बाम्बे समाचार” देश का सबसे पुराना अखबार है। 

भारत में प्रकाशित होने वाले प्रमुख समाचार पत्रिकाओं, हिन्दुस्तान टाइम्स, द हिन्दू, नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, मलयाला, मनोरमा, बांग्ला दैनिक आनंद बाजार आदि ।

विश्व के प्रमुख समाचार पत्रों में न्यूयार्क टाइम्स, डेली न्यूज संयुक्त राज्य अमेरिका, डॉन पाकिस्तान, पीपुल्स डेली चीन, प्रावदा रूस, अल एहराम मिश्र, न्यूस्टेट्समैन ब्रिटेन, डेली मिरर ब्रिटेन, जेवेस्ता मास्को आदि हैं ।

3. दूरभाष या फोन और सेल्यूलर मोबाइल - आधुनिक युग में जनसंचार का यह एक लोकप्रिय माध्यम है। पहले टेलीफोन में तारों के माध्यम से संदेश भेजे जाते थे, परन्तु अब बेतार टेलीफोन का भी प्रयोग हो रहा है। आजकल सेल्युलर फोन का प्रचलन बढ़ रहा है। 

आजकल बड़े पैमाने पर इसका प्रयोग हो रहा है। यह फोन हाथ, पॉकेट व ब्रीफकेस में आसानी से रखा जा सकता है। इन फोन के द्वारा कहीं भी, किसी स्थान से. इच्छित व्यक्ति से (जिसके पास फोन सुविधा हो) संपर्क किया जा सकता है।

4. वीडियोफोन – वीडियोफोन में आवाज के साथ-साथ बोलने वाले की तस्वीर भी देखी जा सकती है। विश्व के विकसित देशों में इसका अधिकाधिक प्रयोग किया जाता है। भारत में कोलकाता, मुम्बई, दिल्ली, चेन्नई जैसे महानगरों में इसका प्रयोग हो रहा है।

5. टेलेक्स – इसके द्वारा भी संदेशों का संप्रेषण होता है। इसकी कार्यप्रणाली तार जैसी ही है, परन्तु यह तार की अपेक्षा शीघ्रगामी तथा खर्चीली है ।

6. फैक्स – यह टेलीफोन से संलग्न एक यंत्र होता है, जो पत्रों, चित्रों, संदेशों आदि को ज्यों का त्यों एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रेषित करता है। इस यंत्र के साथ छपाई करने वाली मशीन भी लगी रहती है। यह भी अधिक खर्चीली है ।

7. रेडियो – संदेशों को शीघ्रता से इसके द्वारा प्रेषित किया जाता है। यह बेतार प्रणाली है । रेडियो से भिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का प्रसारण होता है। ये कार्यक्रम रेडियो केन्द्र के ट्रांसमीटर द्वारा विद्युत् चुम्बकीय तरंगों के रूप में प्रसारित किए जाते हैं, जिसे रिसीवर पुनः ध्वनि तरंगों में बदल देता है और यही ध्वनि तरंगें हमें सुनाई देती हैं। 

8. टेलीविजन – टेलीविजन के माध्यम से ध्वनि तथा चित्र का प्रसारण साथ-साथ होता है। इसके द्वारा किसी भी स्थान की घटनाओं का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया जाता है। वर्तमान में यह काफी लोकप्रिय है तथा हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग बन चुका है। 

इसके अलावा रेडियो पेजर, वाइसमेल, एस. टी. डी. इत्यादि भी संचार के सशक्त माध्यम हैं, जिनसे संदेशों आदि का आदान-प्रदान होता है।

9. इंटरनेट – सन् 1960 में इंटरनेट की खोज से सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व  हैं शुरुआत हुई है। इंटरनेट कम्प्यूटर नेटवर्किंग का विशाल संग्रह है। जिससे विश्व के सारे कम्प्यूटर जुड़े हैं।

इंटरनेट ने पूरी दुनिया को छोटा बना दिया है। इस पर हर दिन बने वेब पेजेस की सहायता से विश्व के किसी भी कोने की सूचनाओं का न सिर्फ डाटा बल्कि पिक्चर एवं ग्राफिक्स भी देखा, सुना जा सकता है। यह लाखों लोगों के रोजगार एवं व्यापार का माध्यम है। इसका उपयोग उद्योगों, व्यवसाय, व्यापार, चिकित्सा एवं शिक्षा के क्षेत्र तथा घरेलू कार्यों में निरन्तर बढ़ते जा रहा है।

इसके माध्यम से ऑन लाइन आर्डर द्वारा घर बैठे मनपसंद वस्तु प्राप्त किया जा सकता है। विश्व की सर्वोत्तम शिक्षण संस्थाओं की जानकारियाँ प्राप्त कर वहाँ की डिग्रियाँ प्राप्त करना आसान हो गया। बेरोजगार युवकों को अपना बायोडाटा दुनिया भर के सामने लाने का यह अच्छा माध्यम है, 

इन सबसे कहीं आगे आते हुए हाल ही में विकसित एक अत्याधुनिक तकनीक के द्वारा अब सुगंधित ई-ग्रीटिंग भेजना भी संभव है। वास्तव में इंटरनेट आधुनिक युग का सबसे बड़ा अविष्कार है ।

उपग्रह

उपग्रह किसी ग्रह की परिक्रमा करने वाले छोटे से पिण्ड को कहते हैं, जैसे- पृथ्वी की परिक्रमा करने वाला चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। मनुष्य ने भी अपने बुद्धिबल से अनेक कृत्रिम उपग्रह बनाये हैं, जो कई ग्रहों की विशेषकर पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। 

ये कृत्रिम उपग्रह मनुष्य द्वारा निर्मित विशाल रॉकेटों द्वारा अंतरिक्ष में छोड़े जाते हैं, तदनन्तर ये पृथ्वी की परिक्रमा करने लगते हैं। इनका नियंत्रण पृथ्वी से ही मुनष्य करता है। ये मशीनों एवं यंत्रों द्वारा संचालित होते हैं । इनको शक्ति प्रदान करने वाली बहुत शक्तिशाली सौर बैटरियाँ लगी रहती हैं, जो सौर ऊर्जा एकत्रित करती रहती हैं। 

ये उपग्रह पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के नियम का उल्लंघन कर अंतरिक्ष में पहुँचते हैं और तब तक पृथ्वी का चक्कर लगाते रहते हैं, जब तक कि उनकी गति 28,000 किमी प्रति घंटा से अधिक रहती है। गति कम होने पर वे पृथ्वी की ओर गुरुत्व बल के कारण खिंच आते हैं। 

इन कृत्रिम उपग्रहों का निर्माण मनुष्य विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करता है, जैसे

  1. प्राकृतिक संसाधनों का पता लगाना। 
  2. मौसम संबंधी जानकारी एकत्रित करना तथा पूर्वानुमान लगाना ।
  3. अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था ।
  4. बाह्य अंतरिक्ष का ज्ञान प्राप्त करना ।
  5. विभिन्न प्रकार के मानचित्र बनाना । 
  6. सैनिक कार्यों के लिए ।

अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था

कृत्रिम उपग्रहों की सहायता से अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था कर पाने में भी सफल हुआ है। इस कृत्रिम उपग्रह के माध्यम से पृथ्वी के एक स्थान से भेजे गये संकेतों को विश्व के सभी भागों में प्रसारित किया जाता है रेडियो, टेलिविजन और टेलिफोन के संकेत सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित होते हैं। इससे संचार व्यवस्था सुदृढ़, तीव्रगामी एवं भरोसेमंद हुई है। 

विश्व के अनेक देशों ने अपने कृत्रिम उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित किये हैं। सबसे पहला उपग्रह सन् 1957 में सोवियत संघ ने स्थापित किया था। अब तक लगभग 5,000 उपग्रह अंतरिक्ष में भेजे जा चुके हैं। 

अंतरिक्ष में उपग्रह स्थापित करने में भारत भी पीछे नहीं है। यहाँ INSAT शृंखला के अंतर्गत 1A, 1B, 1C उपग्रहों को अंतरिक्ष में छोड़ा गया है। इस श्रृंखला के 1B, IC उपग्रह संचार-वहन का कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

कृत्रिम उपग्रह निम्न प्रकार से हमारे लिए उपयोगी हैं

  1. इनके द्वारा मौसमी, जलीय तथा सागरीय दशाओं के उपयोगी आँकड़े एकत्रित किये जाते हैं । 
  2. समुद्र तटों पर आने वाले तूफानों की पूर्व सूचना उपलब्ध होती है।
  3. उपग्रहों द्वारा दूर-दूर तक रेडियो कार्यक्रम प्रसारित किये जाते हैं।
  4. इनके द्वारा टेलीविजन नेटवर्क का विस्तार करने में सहायता मिली है। 
  5. कृत्रिम उपग्रह से सागर तल के तापमान संबंधी आँकड़े एकत्रित किये जाते हैं। 
  6. कृत्रिम उपग्रह टेलिफोन सर्किट की सहायता करते हैं।
  7. उद्योगपति अपने कार्पोरेट ऑफिस से संपर्क स्थापित करते हैं। 

सिकुड़ता हुआ विश्व

प्रारंभिक ऐतिहासिक काल में सम्पूर्ण विश्व पृथ्वी के धरातल पर फैला बहुत दूर-दूर तक विस्तृत, अज्ञात एवं रहस्यात्मक संसार था । मानव जिस भूखण्ड पर जन्म लेता था उसके आसपास तक ही सीमित संसार को जानता था। 

धीरे-धीरे मानव ने आवास-प्रवास व यात्राएँ कीं और उसका ज्ञान बढ़ा तो उसने पाया कि यह संसार विशाल तथा अति दूर-दूर तक फैला है। केवल यही नहीं मानव ने पाया कि थल भागों के बीच-बीच में बहुत विस्तृत विशाल महासागर, महाद्वीपों और द्वीपों को एक-दूसरे से अलग करते हैं। 

उसने अपने साहस और बुद्धि बल से विश्व की इन दूरियों को समाप्त करने का, विश्व की विशालता को लघु करने का सफल प्रयास किया। उसके इन प्रयासों को हम निम्न रूपों में प्रकट कर सकते हैं

1. थलमार्गों का विकासकर दूरियों को निकटता में बदलना - मनुष्य ने सड़कों व रेलमार्गों का विकास किया, जिससे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र की दूरी कम हो गई । आज विश्व के अधिकांश क्षेत्रों में सड़कों व रेलमार्गों के जाल बिछते जा रहे हैं।

विशेषकर आर्थिक तथा औद्योगिक दृष्टि के विकसित राष्ट्रों में ऐसे मार्गों का जाल बड़े सुनियोजित ढंग से बिछ चुका है। इससे एक-दूसरे के सम्पर्क, व्यापार आदि में बहुत प्रगति हुई है।

2. जलमार्गों का विकासकर अंतर्महाद्वीपीय निकटता बढ़ाना - झीलें, सागर, महासागर एक समय दोनों किनारों के लोगों को अलग करते थे, किन्तु आज वे ही सबसे सरल, सबसे सस्ते परिवहन-सम्पर्क सूत्र बन गये हैं।

3. वायुमार्गों द्वारा विश्व को अति लघु रूप प्रदान करना - -मनुष्य ने थलं व जल पर विजय पाकर ही संतोष नहीं कर लिया, उसने वायुयानों का आविष्कार किया। इन वायुयानों द्वारा आज मनुष्य विश्व के किसी भी भाग में कुछ घंटे के अंदर पहुँच सकने में समर्थ हो गया है।

परिवहन के इन तीव्रगामी साधनों के कारण ही विश्व संकुचित होता जा रहा है। इनसे विनिमय की सुविधा भी सुलभ हुई है, वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टीकरण, उनका बड़े पैमाने पर उत्पादन और उनका विभिन्न क्षेत्रों में विनिमय संभव हो सका है। 

अब तो केवल उन वस्तुओं का उत्पादन करता है, जिनको वह कम से कम लागत पर उत्पन्न कर सकता है और उन वस्तुओं को अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में बेचकर अन्य आवश्यक वस्तुएँ क्रय कर लेता है। जैसे- संयुक्त राज्य अमेरिका का गेहूँ डेनमार्क और डेनमार्क का दुग्ध उत्पाद संयुक्त राज्य अमेरिका परिवहन साधनों द्वारा पहुँचता है।

4. विकसित संचार साधनों द्वारा विश्व को पारिवारिक रूप प्रदान करना - जिस प्रकार से हम परिवार में बैठकर एक-दूसरे से बातचीत करते हैं, एक-दूसरे को देखते हैं, ठीक इसी प्रकार से संचार साधनों द्वारा आज यह संभव हो गया है कि हजारों किमी दूर बैठे व्यक्ति से हम बातचीत कर सकते हैं। 

वाशिंगटन और मास्को के मध्य हॉट लाइन द्वारा दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्ष अपनी-अपनी राजधानियों में बैठे ही कुछ मिनट की सूचना पर परस्पर बातचीत करने में सक्षम हैं। दूरदर्शन (टी.वी.) द्वारा कार्यक्रमों को हजारों किमी दूर बैठे लोग देखते और सुनते हैं। इस प्रकार “वसुदैव कुटुम्बकम्” वाली उक्ति सार्थक सिद्ध हो रही है।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार

वस्तुओं, पदार्थों एवं सेवाओं के आदान-प्रदान या क्रय-विक्रय को व्यापार कहते हैं। जब लेन-देन दो या दो से अधिक देशों के बीच होता है तो उसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कहते हैं। 

जब कोई देश अपने उत्पाद को दूसरे देशों में भेजता है तो उसे “निर्यात व्यापार” एवं अपने यहाँ अन्य देशों से वस्तुएँ मँगता तो इसे “आयात व्यापार” कहते हैं। जब विदेशों से आयातित वस्तुओं को पुन: देशों को निर्यात कर दिया जाता है, तो उसे “पुनः निर्यात व्यापार” कहते हैं ।

विश्व व्यापार का आधार एवं बदलता स्वरूप मानव सभ्यता के उदय के साथ व्यापार की प्रक्रिया प्रारंभ हुई एवं विकास के साथ व्यापार के स्वरूप में बदलाव आया। प्रारंभ में मानवीय आवश्यकताएँ बहुत सीमित '। 

व्यापार का क्षेत्र भी बहुत ही सीमित था । एक गाँव के लोग ही आपस में लेन-देन करते थे । वस्तु विनिमय होता था । अपनी वस्तु देने के बदले में आवश्यकता की वस्तु लेते थे। 

मुद्रा के प्रचलन ने व्यापार के स्वरूप को बदल दिया एवं इसके क्षेत्र को व्यापक बना दिया। अब व्यापार किसी गाँव, राज्य या देश तक सीमित नहीं है। बल्कि विश्व के सभी देश किसी न किसी रूप में एकदूसरे से लेन-देन करते हैं । 

कोई भी देश चाहे वह विकसित, विकासशील अथवा पिछड़ा हो, पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर नहीं है। अपने किसी न किसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु दूसरे देश पर निर्भर है। आधुनिक व्यापार जटिल तथा बहुरूपी हो गया है। व्यापार में माँग तथा पूर्ति का नियम लागू होता है। आज अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार देश के आर्थिक विकास का मापक बन गया है ।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए कुछ विशेष परिस्थितियों का होना आवश्यक है। ये परिस्थितियाँ ही व्यापार की आवश्यकता को जन्म देती हैं एवं व्यापार के आधार निम्न हैं

1. देशों का पारस्पारिक संपर्क एवं विनिमय की इच्छा - व्यापार हेतु दोनों पक्षों का पारस्परिक संपर्क हो तथा दोनों एक-दूसरे से लेन-देन की इच्छा रखते हों। पारस्परिक संपर्क द्वारा देश एक-दूसरे की आवश्यकता से परिचित होते हैं ।

2. अतिरिक्त वस्तुओं का उत्पादन - व्यापार हेतु देश में आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का उत्पादन होना आवश्यक है। ताकि घरेलू आवश्यकता की पूर्ति होने के पश्चात् शेष बचे माल को दूसरे देश को भेजा जा सके। कुछ देश अपनी तकनीकी, दक्षता एवं कुशलता के द्वारा वृहत् मात्रा में उत्पादन करते हैं 

जैसे जापान तथा पश्चिमी देश मशीनों एवं दवाओं का उत्पादन आवश्यकता अधिक करते हैं एवं उन देशों को निर्यात करते हैं जहाँ इनका उत्पादन नहीं होता। बदले में खनिज तेल, खाद्यान्न, कच्चा माल आदि आयात करते हैं ।

3. उत्पादों में विभिन्नता - व्यापार हेतु उत्पादों में विविधता आवश्यक है। समान वस्तुएँ होने से व्यापार नहीं होगा। जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका एवं अर्जेण्टाइना के बीच खाद्यान्न का व्यापार नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों के यहाँ गेहूँ की खेती होती है ।

सम्पूर्ण विश्व में प्राकृतिक संसाधनों का वितरण समान नहीं है। कारण धरातलीय संरचना, भूमि, जलवायु, मिट्टी, वनस्पति जीव-जन्तु आदि में भिन्नता है। विभिन्न देशों में अलग-अलग प्रकाशित सेवाओं का उत्पादन होता है। इस विविधता के कारण देशों के बीच परस्पर व्यापार होता है।

4. आर्थिक विकास में विभिन्नताएँ - विभिन्न देशों के आर्थिक विकास में अंतर होने से अलग-अलग प्रकार की आवश्यकताएँ उत्पन्न होती हैं। जैसे-कम विकसित देशों को निर्मित माल की आवश्यकता होती है तथा औद्योगिक विकसित राष्ट्रों को कच्चे माल की आवश्यकता होती है। 

उदाहरणार्थ, ब्रिटेन औद्योगिक दृष्टि से उन्नत राष्ट्र है। यह देश अपने उद्योगों के लिए कच्चा माल एवं अपनी जरूरत के लिए अनाज, मांस और ऊन कम विकसित देशों से आयात करता है और बदले में औद्योगिक उत्पाद उन देशों को निर्यात करता है ।

5. जनसंख्या वितरण की भिन्नता - विश्व में जनसंख्या का वितरण असमान है-जैसे कि चीन, भारत, बंग्लादेश, पाकिस्तान में बहुत अधिक जनसंख्या निवास करती है, जबकि आस्ट्रेलिया, कनाडा, सो. संघ में अल्प जनसंख्या निवास करती है। 

अधिक जनसंख्या वाले देश उपलब्ध संसाधनों से अपनी आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाते । कम जनसंख्या वाले देश अधिक जनसंख्या वाले देशों को प्रायः खाद्यान्न एवं कृषि उपजों का निर्यात करते हैं, जैसे- कनाडा, आस्ट्रेलिया, अर्जेण्टाइना आदि देश गेहूँ का निर्यात यूरोपीय तथा अन्य सघन जनसंख्या वाले देशों को करते हैं ।

6. विदेशी पूँजी निवेश - निर्धन देश बड़े-बड़े उद्योगों के लिए पूँजी जुटाने में असमर्थ होते हैं। विकसित एवं सम्पन्न देश; जैसे- संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस आदि ऐसे देशों में अपनी पूँजी लगाते हैं।

जिससे उन्हें अपने उद्योगों के लिए कच्चा माल – धातु अयस्क, भोज्य पदार्थ आदि सुलभ होते हैं और उनके यहाँ के निर्मित माल के लिए ये देश मण्डियों की भूमिका निभाते हैं। जैसे- ब्रिटेन ने भारत में चाय बागान और मलेशिया में रबर बागान में पूँजी निवेश किया है ।

7. उन्नत परिवहन साधन- -उन्नत परिवहन साधनों के अभाव में अधिक एवं उत्तम कोटि का माल भी मण्डियों में न पहुँचने के कारण व्यर्थ होता है। अत: परिवहन साधन जितने ही अधिक उन्नत एवं विकसित होंगे, व्यापार उतना ही अधिक उन्नति करेगा। 

आज विश्व में तीव्रगामी एवं भारी परिवहन क्षमता वाले परिवहन साधनों के विकास के कारण ही भारी माल; जैसे- कोयला, पेट्रोलियम, उर्वरक आदि का व्यापार बहुत बढ़ा है।

8. सरकार की व्यापार नीति — अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए उदार सरकारी नीति आवश्यक होती है। प्रायः सरकारें आयात व्यापार को कम तथा निर्यात व्यापार को बढ़ाने के प्रयास में आयातित वस्तुओं पर भारी टैक्स (कर) लगा देती हैं और निर्यात के लिए विभिन्न प्रकार की छूट देती हैं ।

9. राजनैतिक संबंध - परस्पर अच्छे संबंध वाले देशों के बीच व्यापार भली-भाँति पनपता है। जैसेयूरोपीयन साझा बाजार  के देशों में परस्पर अधिक व्यापार होता है।

10. देश की स्थिति भौगोलिक स्थिति भी व्यापार को प्रभावित करती है, जैसे- ब्रिटेन विश्व के समस्त जलमार्गों और वायुमार्गों का केन्द्र बिन्दु है, इसलिए आज भी ब्रिटेन का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार बहुत उन्नत है । 

11. जन - रुचि – ब्रिटेनवासी चाय और संयुक्त राज्य अमेरिका निवासी कॉफी (कहवा) पीने में रुचि रखते हैं। अतः ब्रिटेन चाय और संयुक्त राज्य अमेरिका कॉफी का आयात करते हैं ।

12. युद्ध एवं शान्ति – अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के विकास के लिए शांति का बने रहना आवश्यक होता है । क्योंकि युद्ध के समय अस्त्र-शस्त्र का ही व्यापार होता है। अन्य सभी प्रकार के व्यापार बंद हो जाते हैं।

13. उत्पादों की गुणवत्ता - अच्छा, अधिक उपयोगी एवं टिकाऊ उत्पाद की माँग सदैव एवं सर्वत्र होती रहती है। जैसे—स्विट्जरलैण्ड की घड़ियाँ, डेनमार्क का दुग्ध उत्पाद, जापानी कैमरा, फ्रांस की फैशन सामाग्रियाँ - आदि ।

14. राष्ट्रीय आय – सम्पन्न देशों के लोगों की आय अधिक होने के कारण क्रय-शक्ति भी अधिक होती है तथा निर्धन देशों के लोगों की कम आय के कारण क्रय-शक्ति भी कम होती है।

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभ 

  1. आयात द्वारा कच्चे माल की पूर्ति सम्भव होती है।
  2. व्यापार से संबंध सुधरते हैं। सहयोग, सद्भावना तथा मित्रता में वृद्धि होती है। 
  3. सूखा एवं अकाल का सामना आयात द्वारा करने में सफलता मिलती है ।
  4. प्रतिस्पर्धा की भावना के उत्तम कोटि का तथा विभिन्न प्रकार का नये-नये रूप में उत्पाद सुलभ होता है।
  5. उपभोक्ता को उत्तम एवं सस्ती वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। 
  6. कोई देश किसी वस्तु का आयात तभी करता है, जब उसका वहाँ उत्पादन अधिक महँगा पड़ता है।

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से हानियाँ 

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से कुछ हानियाँ भी होती हैं, जो निम्नलिखित हैं

  1. कच्चा माल निर्यात करने वाले देशों का औद्योगिक विकास नहीं हो पाता है। 
  2. दूसरे देशों पर निर्भरता बढ़ती है। 
  3. व्यापार के लिए औद्योगिक विशिष्टीकरण के कारण सर्वतोन्मुखी विकास नहीं हो पाता है। 
  4. प्रतिस्पर्धा बढ़ने से खनिज पदार्थों का शोषण तीव्रगति से होता है। 

व्यापार संतुलन – यदि कोई देश निर्यात व्यापार से जितना धन प्राप्त करता है, उतना ही आयात व्यापार में व्यय करता है, तो उस देश का व्यापार 'संतुलित व्यापार' कहलाता है। यदि निर्यात व्यापार से कम आय तथा आयात व्यापार में अधिक व्यय हो, तो वह व्यापार 'असंतुलित व्यापार' कहलाता है।

व्यापार की मात्रा – किसी देश के व्यापार की गणना प्रायः वस्तुओं की कुल मात्रा तथा आदान-प्रदान की गई वस्तुओं के मूल्य के द्वारा की जाती है। विभिन्न देशों के बीच व्यापार की मात्रा में भिन्नता उत्पादित पदार्थों एवं सेवाओं की प्रकृति तथा द्विपक्षीय संधियों पर निर्भर करती है ।

व्यापार की संरचना – विश्व व्यापार की मात्रा तथा प्रकार में हमेशा परिवर्तन होता रहता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, जापान एवं फ्रांस विश्व के आधे से अधिक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर अधिकार जमाए हुए थे । 

विश्व युद्ध के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भारी परिवर्तन हुआ, क्योंकि जहाँ विकसित राष्ट्रों के नए व्यापारिक समझौते हुए वहीं अनेक पराधीन देश स्वतन्त्र होकर अपने व्यापार को नया रूप देने में जुट गए। 

सन् 1970 तक के व्यापारिक ढाँचे में जापान में अत्यधिक आर्थिक प्रगति, विश्व की व्यापारिक मण्डियों में जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका एवं अन्य औद्योगिक राष्ट्रों की प्रतिद्वन्द्विता, यूरोपीय साझा बाजार के व्यापारिक क्षेत्र का विस्तार, ब्रिटेन और फ्रांस का गिरता प्रभाव नवोदित राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों में वृद्धि ने व्यापार के क्षेत्र में बहुत बदलाव लाया।

सन् 1970 के पश्चात् खनिज तेल के मूल्य में भारी वृद्धि तथा इससे उत्पन्न समस्याओं, खाद्यान्न एवं कच्चे माल के मूल्य में लगातार वृद्धि एवं विश्व की तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या आदि समस्याओं ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की प्रवृत्ति बिल्कुल बदल दी है। 

वर्तमान समय में विश्व व्यापार की प्रमुख विशेषता में विकसित राष्ट्रों द्वारा निर्मित वस्तुओं का निर्यात तथा कच्चा माल एवं खाद्य सामग्री का आयात है, जबकि विकासशील देशों में कच्ची सामग्री का निर्यात तथा निर्मित वस्तुओं का आयात है।

आयात व्यापार – विश्व के आयात व्यापार की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नांकित हैं - 

  1. अधिकांश देश औद्योगीकरण आधारभूत मशीनें और पूँजीगत सामान का आयात करते हैं।
  2. अधिकांश देश मौलिक उपकरण, कारखानों में निर्मित वस्तुएँ एवं मशीनों का अधिक आयात करते हैं। 
  3. अधिक जनसंख्या वाले देशों द्वारा विकसित देशों से खाद्यान्नों के आयात की प्रवृत्ति बढ़ रही है। 
  4. विकसित देशों में कच्चे माल का आयात बढ़ रहा है।

निर्यात व्यापार – विश्व के निर्यात व्यापार की प्रवृत्ति में निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं

1.विकसित देशों के निर्यात में मुख्यतः तैयार माल, मशीनें इत्यादि होते हैं, जबकि विकासशील देश ज्यादातर कच्चे माल या अर्धनिर्मित माल का निर्यात करते हैं। 

2.कुछ वर्षों से विकासशील देशों से भी निर्यात में वृद्धि हुई है। प्रमुख निर्यातक देशों में चीन, कोरिया, ब्राजील, भारत, अर्जेण्टाइना, मैक्सिको आदि देश हैं। इन देशों से कच्चे माल के साथ-साथ अर्धनिर्मित उपभोक्ता उद्योग का निर्मित माल एवं कलात्मक वस्तुओं के निर्यात में तेजी से वृद्धि हो रही है। 

3.विकासशील देशों से मुख्यतः बागानी कृषि वस्तुएँ, खनिज, तम्बाकू, शक्कर, सूती व रेशमी वस्त्र, खनिज तेल आदि का निर्यात विकसित देशों को हो रहा है।

4. विकासशील देशों में आपस में मुख्यतः भारी व हल्के इन्जीनियरी माल, शक्कर, पेट्रोलियम, सीमेंट, सूती - रेशमी वस्त्र, इस्पात एवं विद्युत् सामग्री का निर्यात होता है।

Related Posts

Post a Comment