भारतीय कृषि की समस्या क्या है?

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कृषि वित्त से अर्थ उस साख से है जिसकी आवश्यकता कृषि कार्य करने में होती है। बीज, औजार तथा खाद इत्यादि को खरीदना, भूमि सुधारना तथा अन्य कृषि सम्बन्धी कार्यों की पूर्ति तभी सम्भव हो सकती है जब ठीक समय पर और उचित मात्रा में वित्त उपलब्ध हो। 

वर्तमान में जब हमारी कृषि दिनों-दिन प्रगति कर रही है वित्त सम्बन्धी आवश्यकताएँ निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। इन वित्तीय सुविधाओं का अभाव ही हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का मुख्य कारण रहा है।

भारत में कृषि वित्त की आवश्यकता

भारत में किसानों को विभिन्न उद्देश्यों एवं कालावधियों के लिए वित्त अथवा साख या ऋण की आवश्यकता पड़ती है। कृषि वित्त की आवश्यकता को उद्देश्य एवं समयानुसार निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है।

(1) उत्पादन कार्य से सम्बन्धित ऋण 

इस प्रकार के ऋण की आवश्यकता उत्पादन, उपज की बिक्री, भूमि सुधार व कृषि विकास आदि कार्यों को पूरा करने के लिए होती है। ये ऋण उत्पादन की विभिन्न क्रियाओं से सम्बन्धित होते हैं, अतः इन्हें उत्पादक ऋण कहा जाता है । इस प्रकार के ऋणों से उत्पादन तथा आय में वृद्धि होती है। 

(2) उपभोग से सम्बन्धित ऋण

फसल की बुआई और बिक्री के बीच के समय कृषक को अपने परिवार की उपभोग सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऋण की आवश्यकता पड़ती है जिसे प्रायः फसल की बिक्री के बाद चुकता किया जाता है।

(3) अनुत्पादक ऋण

भारतीय किसानों को कुछ अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी ऋण की आवश्यकता होती है। जैसे—मुकदमा लड़ने, आभूषण खरीदने, जन्म, मृत्यु तथा अन्य सामाजिक एवं धार्मिक रीति-रिवाजों के पालन के लिए ऐसे ऋण की आवश्यकता होती है। चूँकि ये ऋण उत्पादक कार्यों में नहीं लगाये जाते इसलिए इन्हें अनुत्पादक ऋण कहा जाता है।

समयानुसार कृषि वित्त की आवश्यकता

विभिन्न समयावधि के लिए भी किसानों को ऋण की आवश्यकता होती है। अतः समय की दृष्टि से कृषि ऋण की आवश्यकताओं को निम्न तीन भागों में बाँटा जा सकता है -

1. अल्पकालिक या मौसमी ऋण

भारत में किसानों को खाद व बीज खरीदने के लिए, फसल बोने से काटने तक का काम चलाने के लिए और पशुओं व पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन ऋणों की आवश्यकता होती है। इन ऋण की अवधि 15 महीने तक की होती है।

2. मध्यकालीन ऋण 

इसकी आवश्यकता औजार व बैल खरीदने, कृषि प्रणाली में सुधार करने व जमीन में सुधार करने के लिए पड़ती है। इसकी अवधि 15 महीने से 5 वर्ष तक की होती है । 

3. दीर्घकालीन ऋण 

इस प्रकार के ऋण की आवश्यकता किसानों को अपने पुराने ऋण चुकाने, नयी भूमि खरीदने तथा भूमि में कोई सुधार करने के लिए पड़ती है। इसका भुगतान 5 वर्ष के बाद होता है । इस प्रकार के ऋण प्राय: भूमि विकास बैंक से प्राप्त किये जाते हैं।

भारत में कृषि वित्त के स्रोत- भारत में कृषि वित्त की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले स्रोतों को दो.भागों में विभाजित किया जा सकता है।

  1. गैर संस्थागत स्रोत
  2. संस्थागत स्रोत 

गैर-संस्थागत स्रोत

इसके अन्तर्गत ग्रामीण साहूकार अथवा महाजन, व्यापारी, कमीशन एजेण्ट, मित्र एवं सम्बन्धी आदि शामिल हैं

1. साहूकार अथवा महाजन

गैर-संस्थागत स्रोतों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान साहूकार अथवा महाजन का है। प्रारम्भ से ही ये कृषि वित्त के सबसे सहज एवं सुलभ साधन माने जाते रहे हैं।

अखिल भारतीय ग्रामीण साख सर्वेक्षण समिति के अनुसार ग्रामीण साहूकारों एवं महाजनों की कृषि साख में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। संस्थागत वित्त के अभाव में इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। शोषण युक्त होने के बावजूद भी सन् 1951-52 में कृषि साख में इनका योगदान लगभग 75 प्रतिशत था जो 1980-81 में घटकर 27% व 1990-91 में घटकर 20-1 प्रतिशत रह गया है। 

ग्रामीण क्षेत्रों में संस्थागत साख सुविधाओं का विकास होने से इनका महत्व दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है, फिर भी ग्रामीण साख की पूर्ति में इनका महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है।

2. व्यापारी एवं कमीशन एजेण्ट

व्यापारी तथा कमीशन एजेण्ट भी किसानों को उत्पादन कार्यों के लिए ऋण देते हैं। इस तरह की साख कुछ विशिष्ट फसलों, जैसे- तम्बाकू, मूँगफली तथा फल आदि के लिए दी जाती है। इन व्यापारियों एवं एजेण्टों की कार्यप्रणाली महजानों जैसी होती है। 

ये भी किसान को कम मूल्य पर फसल बेचने को बाध्य करते हैं तथा अधिक कमीशन वसूलते हैं। 1951-52 में कृषि साख में इनका योगदान 5.5 प्रतिशत था जो 1990-91 में घटकर 2.5 प्रतिशत रह गया है।

3. मित्र एवं सम्बन्धी 

भारतीय किसान आवश्यकता पड़ने पर अपने मित्रों अथवा सम्बन्धियों से नकद या वस्तुओं के रूप में उधार प्राप्त करते हैं। इस प्रकार की साख आपसी सम्बन्धों के आधार पर अनौपचारिक रूप से ली जाती है। ऐसे ऋण ब्याज रहित अथवा बहुत कम ब्याज पर होते हैं । कृषि वित्त में अब इनका महत्व भो घटता जा रहा है। 1950-51 में ग्रामीण साख में इनका प्रतिशत 11.5 था जो 1990-91 में घटकर 4.0 प्रतिशत रह गया।

संस्थागत स्रोत

सहकारी साख समितियाँ 

किसानों को महाजनों व साहूकारों के शोषण से बचाने तथा कृषि कार्यकलापों के संचालन के लिए पर्याप्त और सस्ती ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सहकारी साख समितियों का विकास किया गया । भारत में इनका त्रिस्तरीय संगठन है— ग्रामीण स्तर पर प्राथमिक सहकारी समितियाँ, जिला स्तर पर जिला सहकारी बैंक तथा राज्य स्तर पर राज्य सहकारी बैंक कार्य कर रहे हैं ।

1. प्राथमिक सहकारी समितियाँ - गाँव के कोई भी 10 व्यक्ति मिलकर प्राथमिक सहकारी समिति की स्थापना कर सकते हैं । इनको कार्यशील पूँजी सदस्यों की सदस्यता शुल्क, केन्द्रीय सहकारी बैंक से ऋण आदि के रूप में प्राप्त होती है। इनका कार्यक्षेत्र बहुत सीमित होता है। 1997-98 में इन समितियों की संख्या 96 हजार थी । वर्ष 1998-99 तक इन समितियों द्वारा 16987 करोड़ रुपये के ऋण वितरित किये थे।

2. केन्द्रीय या जिला सहकारी बैंक - ये बैंक जिला स्तर पर कार्य करते हैं तथा प्राथमिक कृषि साख समितियों को वित्तीय साधन उपलब्ध कराते हैं। वर्ष 1997-98 तक इन बैंकों की संख्या 363 थीं । इन बैंक का मुख्य कार्य प्राथमिक सहकारी साख समितियों को ऋण प्रदान करना हैं ।

3. राज्य सहकारी बैंक – यह सहकारी बैंकिंग ढाँचे की शीर्ष संस्था है। प्रत्येक राज्य में एक राज्य सहकारी बैंक स्थापित किया गया है। 1997 में देश में इस प्रकार के 28 बैंक थे, जिनके द्वारा 11592 करोड़ रुपये के ऋण प्रदान किये गये थे ।

व्यापारिक या वाणिज्यिक बैंक

पहले व्यापारिक बैंक कृषि त्रित्त में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं देते थे, लेकिन 14 व्यापारिक बैंकों का 1969 में व बाद में 6 और बैंकों का 1980 राष्ट्रीयकरण हो जाने के पश्चात् इन बैंकों द्वारा अब कृषि वित्त में महत्वपूर्ण योगदान दिया जाने लगा है। इसके अतिरिक्त अन्य व्यापारिक बैंक भी इस सम्बन्ध में नरम नीति का अनुसरण कर कृषि वित्त सुलभ कर रहे हैं।

ये बैंक अल्पकालीन व मध्यकालीन दोनों ही प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं। व्यापारिक बैंकों का अदत्त या बकाया ऋण राशि के रूप में कृषि साख में प्रत्यक्ष योगदान 1969 में 162 करोड़ रुपये था जो 1999 में बढ़कर लगभग 18443 करोड़ रुपये हो गया।

भूमिक विकास बैंक या भूमि बंधक बैंक

संस्थागत कृषि वित्त के स्रोतों में भूमि विकास बैंक का महत्वपूर्ण योगदान है। ये बैंक किसानों की दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । ये बैंक भूमि खरीदने,पुराने ऋणों का भुगतान करने, बंधक रखे मकान या भूमि को छुड़ाने, भूमि पर स्थायी सुधार करने तथा महँगे कृषि यन्त्रों आदि के लिए सस्ती दर पर लम्बी अवधि के लिए ऋण प्रदान करते हैं। 

इनके ऋणों की भुगतान अवधि 15 से 20 वर्ष होती है। ये बैंक भूमि को बंधक बनाकर ऋण प्रदान करते हैं। 1950-51 में इन बैंकों ने केवल 3 करोड़ रुपये के ऋण प्रदान किये थे जो 1997-98 में बढ़कर 1876 करोड़ रुपये हो गये थे।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक 

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक ग्रामीण क्षेत्र के कमजोर वर्गों, लघु किसानों, भूमिहीन, कृषि मजदूरों, दस्तकारों एवं लघु उद्यमियों को समयानुसार सफलतापूर्वक उचित मात्रा में ऋण उपलब्ध कराकर ग्रामीण विकास में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। इन बैंकों की अधिकांश शाखाएँ पिछड़े क्षेत्रों में खोली गयी हैं। 

इन बैंकों द्वारा दिये गये कुल ऋणों में कमजोर वर्गों का अंश 90 प्रतिशत या इससे अधिक है। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को अग्रणी बैंक योजना के अन्तर्गत तैयार की गयी जिला साख योजनाओं में काफी बड़ा भाग प्रदान किया गया है। ये बैंक ग्रामीण क्षेत्रों में बचतों को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं।

कृषि एवं ग्रामीण विकास का राष्ट्रीय बैंक 

देश में कृषि एवं ग्रामीण विकास कार्यों की वित्त व्यवस्था करने के लिए जुलाई 1982 में शीर्षस्थ बैंक के रूप में राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक की स्थापना की गई। इस बैंक का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र में कृषि, लघु एवं कुटीर उद्योग, दस्तकारी एवं ग्रामीण कला के विकास के लिए वित्तीय सुविधा प्रदान करना है। 

इस बैंक को कृषि पुनर्वित्त एवं विकास निगम के समस्त कार्य तथा वे सभी कार्य सौंपे गये हैं जो रिजर्व बैंक के कृषि साख विभाग द्वारा किये जाते थे।

इस बैंक ने प्रथम वर्ष से ही प्रशंसनीय कार्य किया है । इसने 2000-2001 में कृषि क्षेत्र को 19,518 करोड़ रुपये की सहायता प्रदान की है, जबकि पिछले वर्ष यह 16,637 करोड़ रुपये थी।

कृषि वित्त की समस्याएँ 

भारत में कृषि वित्त की प्रमुख समस्याएँ इस प्रकार हैं— 

1. ग्रामीण क्षेत्रों में साख देने वाली संस्थाओं का अभाव

प्रामीण क्षेत्रों में साख प्रदान करने वाली संस्थाओं का अभाव है। अत: यहाँ महाजन व साहूकार ही प्रमुख रूप से ऋण प्रदान करने वाला स्रोत बने हुए हैं। 

2. समन्वय का अभाव

कृषि वित्त सम्बन्धी आपूर्ति करने वाली विभिन्न संस्थाओं के कार्यकलापों में समन्वय का अभाव ।

3. अधिक लागत

किसानों को ऋण लेने के लिए अपनी भूमि सम्बन्धी अनेक कागजात प्राप्त करके जमा करने होते हैं। इस कार्य के लिए सम्बन्धित कर्मचारियों को घूस देनी पड़ती है। अतः ऋण की वास्तविक लागत बढ़ जाती है।

4. समय व धन का अपव्यय 

किसानों को ऋण प्राप्त करने में प्राय: अनेक बार वित्त संस्थाओं के चक्कर लगाने पड़ते हैं, जिसमें समय व धन का अपव्यय होता है।

5. भण्डार गृहों का अभाव

ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उत्पादन के भण्डारण की उचित व्यवस्था नहीं की जा सकी है, जिसके परिणामस्वरूप किसान अपनी उपज को गोदामों में जमानत के रूप में रखकर ऋण प्राप्त नहीं कर पाते हैं।

5. ऊँची ब्याज दर

प्रामीण क्षेत्रों में जो महाजन व साहूकार ऋण प्रदान करते हैं, वे इन किसानों से बहुत ऊँची दर से ब्याज लेते हैं ।

6. उचित समय पर वित्त उपलब्ध न होना

भारत में किसानों को उनकी आवश्यकतानुसार एवं उचित समय पर ऋण नहीं मिल पाता है।

7. कार्यप्रणाली में विभिन्नता 

वित्त प्रदान करने वाली संस्थाओं की कार्यप्रणाली में भिन्नता पायी जाती है, जिससे किसानों को ऋण प्राप्त करने में नई-नई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

8. ऋण वसूली की समस्या

कृषि ऋण में पुराने बकाया ऋणों की समस्या आज भी चिन्ता का विषय बनी हुई है। 1997-98 के दौरान जहाँ व्यापारिक बैंकों द्वारा ऋण वसूली में सुधार हुआ वहीं सहकारी बैंकों की ऋण वसूली में गिरावट आई है।

कृषि वित्त प्रणाली में सुधार के उपाय 

कृषि वित्त व्यवस्था के दोषों को दूर करने और कृषक समुदाय की उन्नति के लिए निम्न कदम उठाये जा सकते हैं—

1. संस्थागत साख का विस्तार

किसानों को साहूकारों व महाजनों के चंगुल से छुड़ाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में संस्थागत साख का तेजी से विस्तार किया जाय। इसके लिए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों तथा सहकारी साख संस्थाओं का विस्तार किया जाय ताकि प्रत्येक गाँव का किसान इनसे लाभ उठा सके ।

2. व्यापारिक बैंकों का ग्रामीण क्षेत्र में विस्तार

कृषि वित्त के क्षेत्र में वाणिज्य बैंकों के योगदान में भारी वृद्धि लाना आवश्यक है। इसके लिए यह आवश्यक है कि ये बैंक ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी शाखाएँ बढ़ायें और अधिकाधिक मात्रा में वहाँ बचत की राशियों को इकट्ठा करें ।

3. जमानत पर अधिक जोर न देना

छोटे किसानों को ऋण देते समय जमानत देने पर अधिक जोर न दिया जाय, बल्कि इस बात का ध्यान रखा जाय कि कृषकों की ऋण चुकाने की क्षमता कैसी है । 

4. विभिन्न वित्तीय संस्थाओं में समन्वय

विभिन्न वित्तीय संस्थाओं में आपस में प्रभावी समन्वय होना चाहिए, जिससे कि वे उन्हीं स्थानों पर विस्तार कर सकें जहाँ विस्तार की आवश्यकता है।

5. उपभोग कार्यों के लिए ऋण

इन वित्तीय संस्थाओं को उपभोग कार्यों के लिए भी ऋण प्रदान करना चाहिए तथा ऐसे ऋणों को उत्पादक ऋणों के साथ जोड़ देना हितकर रहेगा।

6. ब्याज नीति

ब्याज नीति इस प्रकार की होनी चाहिए कि विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न ब्याज दरों की व्यवस्था हो । छोटे किसानों को तथा ऐसे क्षेत्रों में जहाँ नई तकनीकी को बढ़ावा देना हो, हाँ अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम ब्याज पर अथवा ब्याजमुक्त ऋण देने की व्यवस्था की जानी चाहिए ।

7. ऋण की मात्रा, उपलब्धि एवं समय

कृषि सम्बन्धी विभिन्न कार्यों के लिए आवश्यक मात्रा में ऋण का उपलब्ध होना आवश्यक है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि ऋण कम ब्याज पर और यथासमय उपलब्ध हो, ताकि उसका उचित प्रयोग किया जा सके । 

8. ऋण प्रणाली में एकरूपता 

सभी वित्तीय संस्थाओं की ऋण प्रदान करने सम्बन्धी कार्यप्रणाली में एकरूपता तथा सरलीकरण करना आवश्यक है, जिससे अशिक्षित एवं ऋण लेने वाले किसानों को कठिनाइयों का सामना न करना पड़े ।

9. ऋण का उत्पादक कार्यों में प्रयोग

ऋण के समुचित प्रयोग की ऐसी उचित व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे कि ऋण का प्रयोग उत्पादक कार्यों के लिए हो सके।

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