बेरोजगारी की समस्या भारत की सबसे महत्वपूर्ण समस्या है। दिन-प्रतिदिन यह समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है। बेरोजगारी समाज का सबसे भयंकर शत्रु है। बेरोजगारी की समस्या गंभीर रूप धारण कर चुकी है।
बेरोजगारी किसे कहते हैं
सामान्यतया, जब एक व्यक्ति को अपने जीवन निर्वाह के लिए कोई काम नहीं मिलता है, तो उस व्यक्ति को बेरोजगार और इस समस्या को बेरोजगारी कहते हैं। अर्थात् जब कोई व्यक्ति कार्य करने का इच्छुक है और वह शारीरिक व मानसिक रूप से कार्य करने में समर्थ है। लेकिन उसको कोई कार्य नहीं मिलता, जिससे कि वह अपना जीविका चला सके, तो इस समस्या को बेरोजगारी कहते है।
बेरोजगारी के प्रकार
भारत में मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रकार की बेरोजगारी पायी जाती हैं
क्रम संख्या | बेरोजगारी का प्रकार |
---|---|
1 | संरचनात्मक बेरोजगारी |
2 | अदृश्य बेरोजगारी |
3 | मौसमी बेरोजगारी |
4 | अल्प रोजगार |
5 | खुली बेरोजगारी |
6 | तकनीकी बेरोजगारी |
7 | ऐच्छिक बेरोजगारी |
8 | चक्रीय बेरोजगारी |
9 | शिक्षित बेरोजगारी |
10 | संघर्षात्मक बेरोजगारी |
1. संरचनात्मक बेरोजगारी - जब किसी देश में पूँजी के अभाव या साधनों के सीमित होने के कारण बेरोजगारी उत्पन्न होती है। तो उसे संरचनात्मक बेरोजगारी कहते हैं। इस प्रकार की बेरोजगारी विकासशील एवं अर्द्धविकसित देशों में पायी जाती है।
2. अदृश्य बेरोजगारी - किसी निश्चित क्षेत्र में आवश्यकता से अधिक लोगों का रोजगार पर लगे रहना, जिनकी सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है। अदृश्य बेरोजगारी कहलाती है। अदृश्य बेरोजगारी विशेष रूप से कृषि प्रधान क्षेत्रों में पायी जाती है।
3. मौसमी बेरोजगारी - इस प्रकार की बेरोजगारी भी कृषि क्षेत्रों में पायी जाती है। जब श्रमिकों को पूरे वर्ष या सभी मौसमों में रोजगार नहीं मिलता है। अर्थात् लोग वर्ष में पाँच या छ: माह कार्य करते हैं, शेष दिनों में उनके पास कोई कार्य नहीं होते हैं, इसे मौसमी बेरोजगारी कहते हैं।
4. अल्प रोजगार - जब किसी रोजगार चाहने वाले व्यक्ति को उसकी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार रोजगार नहीं मिलता है। तो इसे अल्प रोजगार कहते हैं।
5. खुली बेरोजगारी - जब कोई शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति कार्य करने को इच्छुक हो, लेकिन उसे काम न मिले, तो इसे खुली बेरोजगारी कहते हैं।
6. तकनीकी बेरोजगारी - जब किसी देश में नई तकनीक के अपनाने से कुछ क्षणों के लिए श्रमिक बेरोजगार हो जाते है। तो उसे तकनीकी बेरोजगारी कहते हैं। इस प्रकार की स्थिति प्रायः विकसित देशों में पाई जाती है।
7. ऐच्छिक बेरोजगारी - जब कोई व्यक्ति प्रचलित मजदूरी दर पर स्वेच्छा से कार्य न करना चाहे, तो इसे ऐच्छिक बेरोजगारी कहते हैं ।
8. चक्रीय बेरोजगारी - मन्दीकाल की स्थिति में प्रभावकारी माँग में कमी या मजदूरों की छँटनी शुरू कर दी जाये, जिससे कुछ लोग अल्प अवधि के लिए बेरोजगार हो जायें, तो इसे चक्रीय बेरोजगारी कहते हैं।
9. शिक्षित बेरोजगारी - जब किसी शिक्षित व्यक्ति को उसकी इच्छानुसार नौकरी न मिले, तो इसे शिक्षित बेरोजगारी कहते हैं। यह खुली बेरोजगारी का ही एक रूप होता है।
10. संघर्षात्मक बेरोजगारी - श्रम बाजार की अपूर्णताओं के कारण लोग अस्थायी रूप से बेरोजगार हो जाते हैं, इसी अस्थायी बेरोजगारी को संघर्षात्मक बेरोजगारी कहते हैं ।
बेरोजगारी का स्वरूप
भारत में बेरोजगारी की समस्या को दो भागों में बाँट सकते हैं -
- ग्रामीण बेरोजगारी
- शहरी बेरोजगारी
1. ग्रामीण बेरोजगारी
भारत गाँवों का देश है। देश की 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न है और शेष सेवा क्षेत्रों में जैसे - लोहार, नाई, कुम्हार आदि।
इस प्रकार लगभग दो तिहाई जनसंख्या अपने कार्यों में संलग्न है। जबकि शेष दूसरों के लिए कार्य करती है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की समस्या प्रमुख रूप से अल्प रोजगार की समस्या है। लोगों को कुछ सप्ताहों या महीनों के लिए काम मिल जाता है। लेकिन वर्ष के शेष समय में बेरोजगार रहते हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में निम्न प्रकार की बेरोजगारी पायी जाती है
1. अदृश्य बेरोजगारी - किसी निश्चित क्षेत्र में आवश्यकता से अधिक लोगों का रोजगार पर लगे रहना, जिनकी सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है। अदृश्य बेरोजगारी कहलाती है।
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अदृश्य बेरोजगारी विशेष रूप से पायी जाती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इन क्षेत्रों में पारिवारिक खेती है।
जिसमें कृषि कार्य को परिवार के सदस्य आपस में बाँट लेते हैं। यदि कार्य कम भी होता है। लेकिन परिवार के सभी सदस्य उसी में लगे रहते हैं। उदाहरणार्थ, यदि एक हेक्टेयर भूमि पर 10 व्यक्ति कार्यरत हैं। जिससे 10 क्विण्टल उत्पादन होता है।
यदि इस कृषि भूमि पर से 5 व्यक्तियों को अन्यत्र रोजगार दिया जाता है। तो भी कुल उत्पादन में कोई परिवर्तन नहीं होता है, तो इसका आशय है कि कृषि भूमि पर पाँच व्यक्ति अदृश्य बेरोजगार हैं। राष्ट्रीय श्रम आयोग के अध्ययन दल के अनुसार भारत में लगभग 1.7 करोड़ व्यक्ति अदृश्य बेरोजगार हैं।
2. मौसमी बेरोजगारी - भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में मौसमी बेरोजगारी भी पाई जाती है। मौसमी बेरोजगारी वह है, जो किसी खास मौसम में होती है। जैसे - फसल काटने व अगली फसल की शुरुआत करने के बीच कोई काम नहीं मिलता है। इसे ही मौसमी बेरोजगारी कहते हैं।
कृषि आयोग के अनुसार, 4-5 महीने तक लोग बेरोजगार रहते हैं। जबकि कृषि श्रमिक को मात्र 218 दिन ही कार्य मिलता है।
3. आकस्मिक बेरोजगारी - कभी-कभी बाढ़, तूफान, सूखा या अन्य प्राकृतिक कारणों से आकस्मिक बेरोजगारी की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
2. शहरी बेरोजगारी
भारत के शहरी क्षेत्रों में निम्न दो प्रकार की बेरोजगारी पायी जाती है -
1. शिक्षित बेरोजगारी - जब किसी शिक्षित व्यक्ति को उसकी इच्छानुसार नौकरी न मिले तो इसे शिक्षित बेरोजगारी कहते हैं। भारत के शहरी क्षेत्रों में शिक्षित बेरोजगारी की समस्या गम्भीर रूप धारण करती जा रही है।
2. औद्योगिक बेरोजगारी - औद्योगिक क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण उत्पन्न हुई है। औद्योगिक बेरोजगारी से तात्पर्य उद्योगों, खनिज, व्यापार, यातायात, निर्माण आदि में काम करने के इच्छुक लोगों से है। जिसे कोई रोजगार नहीं मिल पाता है।
औद्योगिक बेरोजगारी का प्रमुख कारण यह है कि शहरों में उद्योगों में वृद्धि के कारण जनसंख्या गाँवों से शहरों में आकर बसने लगी। फलस्वरूप औद्योगिक क्षेत्रों में श्रमिकों की पूर्ति बढ़ गयी, लेकिन इतने उद्योग स्थापित नहीं हो पाये हैं, जो समस्त जनसंख्या को रोजगार दे सकें।
बेरोजगारी के कारण
भारत में बेरोजगारी का सही-सही अनुमान लगाना संभव नहीं है। क्योंकि विश्वसनीय आंकड़ों का अभाव है। ऐसा अनुमान है कि प्रथम पंचवर्षीय योजना के प्रारंभ में 33 लाख लोग बेरोजगार थे, लेकिन यह संख्या बराबर बढ़ती जा रही है। सन् 2004-05 के अन्त में देश के रोजगार कार्यालयों में 419.9 लाख व्यक्तियों ने बेरोजगार के रूप में पंजीकृत किया था।
भारत में बेरोजगारी के निम्नलिखित कारण हैं -
1. जनसंख्या वृद्धि - भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर 2-1 प्रतिशत प्रतिवर्ष है, तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण है। जिस अनुपात में जनसंख्या बढ़ती है, उस अनुपात में रोजगार के अवसरों में वृद्धि नहीं होती है। अतः दिनों-दिन बेरोजगारी एक विकराल रूप धारण करती जा रही है।
2. लघु एवं कुटीर उद्योगों में ह्रास - योजनाबद्ध आर्थिक विकास तथा बड़े बड़े उद्योगों में स्वचालित मशीनों के प्रयोग को बढ़ावा मिला है। इन उद्योगों में अच्छी किस्म की वस्तुएँ कम लागत पर उत्पन्न की जाती हैं।
परिणामस्वरूप लघु एवं कुटीर उद्योग धीरे-धीरे बन्द होने लगते हैं। इससे बेरोजगारी पर दोहरी मार पड़ती है। एक ओर लघु व कुटीर उद्योगों के बन्द होने से तथा दूसरी ओर स्वचालित मशीनों के प्रयोग से श्रमिकों में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है।
3. श्रम की गतिशीलता का अभाव - रूढ़िवादिता तथा पारिवारिक मोह के कारण श्रमिकों में गतिशीलता का अभाव पाया जाता है। श्रमिक भाषा, रीति-रिवाज, संस्कृति में भिन्नता, घर से दूरी की बाधा के कारण अन्य जगहों पर कार्य करने को इच्छुक नहीं होते हैं। अत: पूर्ण रोजगार प्राप्त करने में यह भी एक बाधा है।
4. पूँजी निर्माण की दर - विकसित देशों में पूँजी निर्माण की दर जनसंख्या वृद्धि की दर से अधिक होती है, इसलिए उन देशों में बेरोजगारी की समस्या नहीं होती है। भारत में पूंजी निर्माण की दर जनसंख्या वृद्धि की दर से कम है, जिससे बढ़ी हुई जनसंख्या को रोजगार सुलभ कराने में समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
5. पूंजी गहन तकनीक - उत्पादन के क्षेत्र में अधिक श्रमिकों के प्रयोग की जगह स्वचालित मशीनों का प्रयोग करना। नए उद्योगों तथा उत्पादन के अन्य क्षेत्रों में उत्पादन कार्य मशीनों द्वारा किया जाता है, जिससे रोजगार के अवसरों में कमी हो रही है, और बेरोजगारी की समस्या बढ़ी है।
6. दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति - भारत की शिक्षा पद्धति व्यवसाय प्रधान या व्यावहारिक होने की बजाय सिद्धान्त प्रधान है, जिससे बेरोजगारी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।
7. त्रुटिपूर्ण नियोजन - स्वतन्त्रता के बाद देश में आर्थिक नियोजन अपनाया गया जिससे अर्थव्यवस्था के तीव्र विकास के साथ-साथ बेरोजगारी दूर की जा सके, लेकिन देश में आठ पंचवर्षीय योजनाएं समाप्त हो चुकी हैं। फिर भी बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि हुई है। इसका मुख्य कारण त्रुटिपूर्ण नियोजन व्यवस्था है।
8. देश का विभाजन व युद्ध - देश का विभाजन होने से भारी संख्या में शरणार्थियों का आगमन हुआ। सन् 1971 में बंगलादेश में युद्ध के कारण भी शरणार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई, जिससे बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि हुई है।
9. भारी कर भार - देश में आय एवं धन की विषमता को दूर करने के लिए सरकार ने उद्योगपतियों पर भारी कर लगा दिया है, जिससे उद्योगों के विस्तार पर रोक लग गयी। परिणामस्वरूप बेरोजगारों की संख्या में और अधिक वृद्धि हुई है।
10. मुद्रा - स्फीति - मुद्रा- स्फीति भी बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि करती है। मूल्य वृद्धि के कारण श्रमिकों के वेतन एवं भत्ते में वृद्धि होती है, जिससे वस्तुओं की लागत एवं मूल्य बढ़ जाते हैं, लेकिन वस्तुओं की माँग कम हो जाती है। माँग कम होने से उत्पादन कम होता है। उत्पादन कम होने से बेरोजगारी बढ़ती है।
बेरोजगारी के प्रभाव
देश के लिए बेरोजगारी की समस्या एक गंभीर समस्या है। सन् 1956 व 1990 के बीच बेरोजगारों की संख्या दुगुनी हो गई है। इस समस्या के कुछ दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं।
1. मानवशक्ति का व्यर्थ जाना - बेरोजगारी देश के लिए गंभीर समस्या होती है। इसके कारण मानव शक्ति का उचित उपयोग नहीं हो पाता है और यह शक्ति व्यर्थ ही चली जाती है। यदि इसको उचित रूप से काम में लिया जाता है तो यह देश के लिए समृद्धि एवं सम्पन्नता का साधन बन सकती है ।
2. सामाजिक समस्या - जिस देश में बेरोजगारी होती है, उस देश में नई-नई सामाजिक समस्याएँ जैसे - चोरी, डकैती, बेईमानी, अनैतिकता, शराबखोरी, जुएबाजी आदि में वृद्धि होती हैं, जिससे सामाजिक सुरक्षा को खतरा पैदा हो जाता है। शांति एवं व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होती है। जिस पर सरकार को भारी व्यय करना पड़ता है।
3. राजनीतिक अस्थिरता - बेरोजगारी की समस्या देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर सकती है, क्योंकि व्यक्ति हर समय राजनीतिक उखाड़-पछाड़ में लगे रहते हैं ।
4. आर्थिक सम्पन्नता में कमी - बेरोजगारी से प्रति व्यक्ति आय में गिरावट आती है, जिससे जीवन-स्तर गिरता है। लोगों की ऋणग्रस्तता एवं निर्धनता में वृद्धि होती है। आर्थिक समस्याएँ बढ़ती हैं ।
5. अन्य दुष्प्रभाव - बेरोजगारी के अन्य दुष्प्रभाव भी होते हैं, जैसे - औद्योगिक संघर्षों में वृद्धि हो जाती है, मालिकों द्वारा बेरोजगारी का लाभ उठाकर कम मजदूरी दी जाती है, पेट भर भोजन न मिलने से मृत्यु दर बढ़ जाती है आदि। बेरोजगारी से सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक वातावरण दूषित हो जाता है।
बेरोजगारी दूर करने के उपाय
भारत में बेरोजगारी दूर करने के लिए निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं -
1. विनियोग में वृद्धि - सरकार निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों को प्रोत्साहित करे । सार्वजनिक क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पूँजी का विनियोजन करके बेरोजगारी दूर की जा सकती है। निजी क्षेत्र के उद्योगपतियों की विनियोग योजनाएँ मुख्य रूप से श्रम-प्रधान होनी चाहिए, जिसमें कम पूँजी लगाकर अधिक लोगों को रोजगार दिया जा सके।
2. नवीन योजनाएँ - नई-नई योजनाओं का निर्माण करना चाहिए तथा उन योजनाओं को प्राथमिकता प्रदान करनी चाहिए, जिसमें कम पूँजी लगाकर अधिक लोगों को रोजगार दिया जा सके । दीर्घकालीन योजनाओं के स्थान पर अल्पकालीन योजनाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए।
3. कर व्यवस्था में सुधार - प्रगतिशील कर व्यवस्था में संशोधन करके पुराने पूँजीपतियों को अधिक विनियोग हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए। उत्पादन के क्षेत्र में प्रवेश करने के इच्छुक पूँजीपतियों को कर में छूट देनी चाहिए, जिससे उत्पादन में वृद्धि होगी तथा बेरोजगारी दूर होगी।
4. प्रशिक्षण सुविधाएँ - अकुशल एवं अप्रशिक्षित श्रमिकों को कुशल एवं प्रशिक्षित करने हेतु जगह-जगह प्रशिक्षण केन्द्र खोलना चाहिए, इससे उत्पादन एवं उत्पादकता दोनों में वृद्धि करके बेरोजगारी की समस्या दूर की जा सकती है।
5. जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण - बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए सर्वप्रथम जनसंख्या वृद्धि दर पर नियन्त्रण लगाना होगा, ताकि बेरोजगारों की बढ़ती हुई संख्या को रोका जा सके।
6. लघु व कुटीर उद्योगों का विकास - ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धों का विकास करना चाहिए जिसमें कम-से-कम पूँजी विनियोजन हो तथा अधिकाधिक व्यक्तियों को रोजगार सुलभ हो सके। लघु एवं कुटीर उद्योगों को अनेक प्रकार की सुविधाओं का प्रलोभन देना चाहिए, जिससे उनका विकास हो सके और ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या दूर हो सके ।
7. शिक्षा पद्धति में परिवर्तन - देश की शिक्षा पद्धति में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है । शिक्षा पद्धति रोजगार उन्मुख होनी चाहिए, इसके लिए व्यावसायिक शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है। रूस, जापान एवं ब्रिटेन जैसे देशों में प्रचलित व्यावसायिक शिक्षा पद्धति के आधार पर अपने देश में भी बेरोजगारी में कमी लायी जा सकती है।
8. सहायक उद्योग-धन्धों का विकास - भारत में अदृश्य बेकारी या मौसमी बेकारी का स्वरूप पाया जाता है। इसे में दूर करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि के साथ सहायक उद्योग-धन्धों का विकास करना चाहिए। जैसे-मुर्गीपालन, दुग्ध व्यवसाय, बागवानी, मत्स्यपालन आदि सहायक उद्योगों का विस्तार करना चाहिए।
9. प्राकृतिक साधनों का सर्वेक्षण - भारत में प्राकृतिक साधनों का व्यापक सर्वेक्षण कराना चाहिए, इससे नई-नई सम्भावनाओं का पता चलेगा, नये-नये उद्योग स्थापित किये जायेंगे। इससे बेरोजगारी में कमी लायी जा सकती है।
10. जनशक्ति नियोजन - श्रमिकों की माँग एवं पूर्ति के बीच सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। श्रमिकों की भावी माँग व पूर्ति का पता लगा लेना चाहिए तथा उसी के अनुसार प्रशिक्षण आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।