भ्रमर गीत सार : सूरदास
Hindi Sahitya Bhramar Geet Sar Surdas Pad 85 Vyakhya By Rexgin
भ्रमरगीत सार (व्याख्या)
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भ्रमरगीत सार (व्याख्या) |
85. राग सारंग
बिन गोपाल बैरनि भई कुंजै।
तब ये लता लगति अति सीतल , अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।।
बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलैं, अलि गुंजै।
पवन पानि घनसार संजीवनि दधिसुत किरन भानु भई भुंजै।।
ए , ऊधो , कहियो माधव सों बिरह कदन करि मारत लुंजै।
सूरदास प्रभु को मग जोवत आँखियाँ भई बरन ज्यों गुंजैं।
शब्दार्थ - बैरिन = शत्रु। विषम = भयंकर। पूजै = समूह। वृथा = व्यर्थ। अलि गूंजै = भ्रमर गुंजार करते हैं। घनसार = चंदन। दधिसुत = चन्द्रमा। भानु = सूर्य। भुंजै = भूनती हैं। कदन = छुरी। लुंजैं = लुंज-पुंज बनाना। बरन = वर्ण या रंग। ज्यों = जैसे। गूंजै = गुंजा का लाल पुष्प।
संदर्भ - प्रस्तुत पद भ्रमरगीत सार से लिया गया है जिसका संपादन आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने किया है।
प्रसंग - संयोग में जो वस्तुएं आनंददायक प्रतीत होती हैं; वह वियोग काल में दुखदाई प्रतीत होने लगती हैं। कृष्ण के साथ जो कुंज बड़े-भले और सुंदर प्रतीत होते थे वे ही अब कृष्णाभाव में बड़े कड़वे और कष्टदायक प्रतीत हो रहे हैं। इसी भाव की व्यंजना करती हुई गोपियाँ कह रही है -
व्याख्या - कृष्ण के साथ ये कुंजै बड़ी भली प्रकार से सुखद और आनंद प्रद प्रतीत होती थीं। लेकिन अब उनके अभाव में रस-युक्त क्रिडाओं के आधार कुंज भी हमारे लिए शत्रु बन गए हैं।
संयोग काल में ये लताएं बड़ी शीतल लगती थी और उनके विरह में ये कठोर लपटों के समान बन गई हैं।
वह कहती हैं कि कृष्णा की उपस्थिति में तो सभी की सार्थकता है किंतु उनके बिना यमुना का जल बहना भी व्यर्थ प्रतीत होता है। इतना ही क्यों पक्षियों का कलरव भी महत्वहीन प्रतीत होता है। कमल व्यर्थ ही बोलते हैं और यह भ्रमर व्यर्थ ही गुलजार करते फिरते हैं।
शीतल-पवन, कपूर एवं संजीवनी, चंद्र किरणे अब सूर्य के समान भुने डालती हैं। भावार्थ यह है की पवन की शीतलता अब दाहक बन गई है।
हे उद्धव तुम माधव से जाकर कहना की विरह की कटार हमें काटकर लंगड़ा बना रही है।
सुर कहते हैं कि गोपियों ने कहा कि हे उद्धव! प्राणेश कृष्ण की प्रतीक्षा करते करते यह आंखें गुंजा के समान लाल हो गई हैं।
विशेष - अलंकारों में छेका अनुप्रास, अन्त्या अनुप्रास, उपमा आदि अलंकारों का प्रयोग किया गया है। पद्माकर की इन पंक्तियों की तुला पर रखकर इस वर्णन को पढ़ा जा सकता है-
प्रकृति को उद्दीपन रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस पद में जो प्रकृति है वही तुलसी के बिरही राम की भी विषमता पूरित ये पंक्तियां देखिए -
"कहेऊ राम बियोग तब सीता।
मों कह सकल भये विपरीता।।
नवतरू किरनलय मनहुँ कृसानु।
काल निशा सम निसि ससि भानू।।
जे हित रहे करत तेई पीरा।
उरग स्वास राम त्रिविध समीरा।।"