नंदनंदन मोहन सों मधुकर ! है काहे की प्रीति ?
जौ कीजै तौ है जल, रवि औ जलधर की सी रीति।।
जैसे मीन, कमल, चातक, को ऐसे ही गई बीति।
तलफत, जरत, पुकारत सुनु, सठ ! नाहिं न है यह रीति।।
मन हठि परे, कबंध जुध्द ज्यों, हारेहू भइ जीति।
जौ कीजै तौ है जल, रवि औ जलधर की सी रीति।।
जैसे मीन, कमल, चातक, को ऐसे ही गई बीति।
तलफत, जरत, पुकारत सुनु, सठ ! नाहिं न है यह रीति।।
मन हठि परे, कबंध जुध्द ज्यों, हारेहू भइ जीति।
बँधत न प्रेम-समुद्र सूर बल कहुँ बारुहि की भीति।।