सँदेसो कैसे कै अब कहौं ?
इन नैनन्ह तन को पहरो कब लौं देति रहौं ?
जो कछु बिचार होय उर -अंतर रचि पचि सोचि गहौं।
मुख आनत ऊधौं-तन चितवन न सो विचार, न हौं।।
अब सोई सिख देहु, सयानी ! जातें सखहिं लहौं।
सूरदास प्रभु के सेवक सों बिनती कै निबहौं।।