भ्रमर गीत सार : सूरदास व्याख्या
सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल
आपका फिर से स्वागत है हमारे ब्लॉग में पिछले पोस्ट में मैंने आपके साथ शेयर किया था हिंदी साहित्य के भ्रमरगीत सार का पद क्रमांक 28 जिसका सम्पादन किया था आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने और अभी हम आपके लिए इस पोस्ट में शेयर किये हैं इसी भ्रमर गीत सार का पद क्रमांक 29 का व्याख्या तो चलिए जाने भ्रमरगीत सार के इस पद में सूरदास जी ने आखिर क्या कहा है।Hindi Sahitya Bhramar Geet Sar Surdas Pad 29 Vyakhya By Rexgin
सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल
Bhramargeet Sar Ramchandra Shukla 29
29. राग कान्हरो
पूरनता इन नयनन पूरी।
तुम जो कहत स्रवननि सुनि समुझत, ये यही दुख मरति बिसूरी।।
हरि अन्तर्यामी सब जानत बुद्धि विचारत बचन समूरी।
वै रस रूप रतन सागर निधि क्यों मनि पाय खवावत धूरी।।
रहु रे कुटिल , चपल , मधु , लम्पट , कितब सँदेस कहत कटु कूरी।
कहँ मुनिध्यान कहाँ ब्रजयुवती ! कैसे जाट कुलिस करि चूरी।।
देखु प्रगट सरिता, सागर, सर, सीतल सुभग स्वाद रूचि रूरी।
सूर स्वातिजल बसै जिय चातक चित्त लागत सब झूरी।।
शब्दार्थ : पूरनता=पूर्णता। नयन=आँख। न पूरी=नहीं जँचती। स्त्रवननि=कानों से। यहीं=यह ही। बिसूरी=बिलख-बिलखकर। समूरी=पूर्णरूप से। धूरी=धूल मिटटी। कुटिल=छली। चपल=चंचल। मधूलम्पट=रस के लोभी। कितब=धूर्त। क्रूरी=क्रूर, निष्ठुर। कुलिस=बज्र। सर=तालाब। शीतल=ठण्डा। सुभग=मधुर। रूरी=अच्छी। चित=मन। झूरी=नीरस।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत सार से लिया गया है जिसके सम्पादक सूरदास जी हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत पद में गपियाँ उद्धव के ज्ञानोपदेश को सुनकर नाराज और खीझी हुई हैं।
व्याख्या : हे उद्धव तुमने जो कार्य पूर्ण ब्रम्ह का वणर्न किया है उसकी पूर्णता हमारी नेत्रों में पूरी तरह नही समा पाती अर्थात वह हमें जँचती नहीं है तुमने ब्रम्ह की पूर्णता के बारे में हमें जो-जो बातें कही हैं वह हम इन कानों से सुनकर समझने की कोशिश कर रही हैं। प्रयास कर रहीं हैं परन्तु हमारी आखें दुखने लगती हैं और बिलक बिलक कर मरी जा रही है इस बिलखने के दो कारण हो सकते हैं एक यह की इन्हें तुम्हारे द्वारा वर्णिंत ब्रम्ह की पूर्णता कही भी नजर नहीं आती अथवा दुसरा यह भ्रम है कि कहीं हम तुम्हारी बातों में आकर श्री कृष्ण को न छोड़ दें। और तुम्हारे ब्रम्ह को न स्वीकार कर लें।
गोपियाँ कहती हैं कि सभी को यह पता है सभी को यह ज्ञात या जानकारी है कि भगवान अन्तर्यामी हैं बुद्धि द्वारा इस बात पर विचार करने पर हमें भी तुम्हारा यह कथन सत्य प्रतीत होता है इस बात पर विशवास होने लगता है किन्तु हमारे कृष्ण तो प्रेम रूप और रत्नों के सागर हैं। रत्न तो मूल्यवान हैं ऐसे माणीक को प्राप्त कर लेने पर तुम हमें धूल के समान तुच्छ अपने निर्गुण ब्रम्ह को अपना लेने का उपदेश क्यों दे रहे हो तुम्हारा यह उपदेश व्यर्थ ही जाएगा क्योकि हम अपना धर्म बदलने वाले नही हैं।
भ्रमर को सम्बोधित करती हुई उद्धव को खरी-खोटी सुनाते हुए कहती हैं कि अरे छली चंचल, रस के लोभी धूर्त भौरे ठहर, तूँ हमें ऐसा योग का कटु संदेस क्यों सूना रहा है हमें यह तो बता की कहाँ मुनियों कि ब्रम्ह विषयक कठोर साधना और कहाँ हम कॉंमलांगी ब्रज की युवतियां क्या तुझे कहीं भी समानता दिखाई देती है।
क्या कठोर ब्रज को तोड़कर चकनाचूर करना सम्भव है नही न उसी प्रकार हमारे लिए भी इस योग का करना असम्भव है। संसार में सरिता, सागर, तालाब का जल मीठा निर्मल और शीतल होता है यह देखकर भी स्वाती जल के प्रेमी चातक के हृदय में तो स्वाती नक्षत्र के समय जो जल उपलब्ध होता है उसी के प्रति प्रेम होता है।
वह उसी का पान करके जी को शांत करता है अन्य जो स्त्रोत हैं उनसे प्राप्त जल भले ही शीतल और मधुर हो उसके लिए उस चातक के लिए वह नीरस और व्यर्थ है। ठीक इसी प्रकार तुम्हारा ब्रम्ह अवश्य ही मुक्ति देने वाला हो सकता है किंतु हमें तो केवल श्री क्रृष्ण/विष्णु प्रिय लगते हैं हमें तो मुक्ति नही चाहिए हमें तो कृष्ण चाहिए अतः तुम्हारे ब्रम्ह को स्वीकार नही कर सकते हैं।
विशेष :
- गोपियों न चातक को आधार बनाकर अपने प्रेम की अनन्यता घोषणा की है।
- छेकानुप्रास, प्र्त्यानुप्रास आदि अलंकारों का प्रयोग कवि के द्वारा किया गया है।
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