Hey friends आपका फिर से एक बार स्वागत है हमारे ब्लॉग में पिछले पोस्ट में मैंने आपके साथ शेयर किया था आचार्य रामचंद्र शुक्ल के द्वारा सम्पादित भ्रमर गीत सार नामक पद्यांश के पद क्रमांक 26 को आज मैं आपके साथ शेयर करने वाला हूँ भ्रमरगीत सार के पद क्रमांक 27 के व्याख्या को तो चलिए जानते हैं इसकी व्याख्या -
Hindi Sahitya Bhramar Geet Sar Surdas Pad 27 Vyakhya By Rexgin
सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल
27. राग मलार
हमरे कौन जोग व्रत साधै ?
मृगत्वच, भस्म अधारी, जटा को को इतनौ अवराधै ?
जाकी कहूँ थाह नहिं पैए , अगम , अपार , अगाधै।
गिरिधर लाल छबीले मुख पर इते बाँध को बाँधै ?
आसन पवन बिभूति मृगछाला ध्याननि को अवराधै ?
सूरदास मानिक परिहरि कै राख गाँठि को बाँधै ?।।27।।
शब्दार्थ : हमरे=हमारे। साधै=साधना करे। मृगत्वच=हिरण की छाल। अवराधै=आराधना करे। अगाधै=अथाह। बाँध=बंधन। पवन=वायु, यहाँ प्राणायाम। विभूति=राख। मानिक=मोति। परिहरि=त्यागकर।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत सार से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।
प्रसंग : यहाँ गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं की सुंदर कृष्ण को छोड़कर निर्गुण ब्रम्ह की साधना करना असम्भव है।
व्याख्या :
योग साधना की कठिनाइयों बाहरी बंधनों और प्रयत्न की आलोचना करते हुए गोपियाँ उद्धव से कहती हैं। की हे उद्धव हमारे यहां तुम्हारे योग व्रत की साधना कौन करे।
मृगशाला, भस्म, उधारी आदि वस्तुओं को इकट्ठा करता कौन फिरे, और फिर अपने सिर पर जटा कौन बान्धे।
Hindi Sahitya Bhramar Geet Sar Surdas Pad 27 Vyakhya By Rexgin
सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल
Bhramargeet sar ramchandra shukla पद 27 व्याख्या
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BHRAMAEGEET RAMCHANDRA SHUKL |
27. राग मलार
हमरे कौन जोग व्रत साधै ?
मृगत्वच, भस्म अधारी, जटा को को इतनौ अवराधै ?
जाकी कहूँ थाह नहिं पैए , अगम , अपार , अगाधै।
गिरिधर लाल छबीले मुख पर इते बाँध को बाँधै ?
आसन पवन बिभूति मृगछाला ध्याननि को अवराधै ?
सूरदास मानिक परिहरि कै राख गाँठि को बाँधै ?।।27।।
शब्दार्थ : हमरे=हमारे। साधै=साधना करे। मृगत्वच=हिरण की छाल। अवराधै=आराधना करे। अगाधै=अथाह। बाँध=बंधन। पवन=वायु, यहाँ प्राणायाम। विभूति=राख। मानिक=मोति। परिहरि=त्यागकर।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत सार से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।
प्रसंग : यहाँ गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं की सुंदर कृष्ण को छोड़कर निर्गुण ब्रम्ह की साधना करना असम्भव है।
व्याख्या :
योग साधना की कठिनाइयों बाहरी बंधनों और प्रयत्न की आलोचना करते हुए गोपियाँ उद्धव से कहती हैं। की हे उद्धव हमारे यहां तुम्हारे योग व्रत की साधना कौन करे।
मृगशाला, भस्म, उधारी आदि वस्तुओं को इकट्ठा करता कौन फिरे, और फिर अपने सिर पर जटा कौन बान्धे।
तुम्हारा ब्रम्ह तो ऐसा है जिसकी कही भी थाह नही पाई जा सकती जो अगम है अपार है अथाह है। फिर इतनी मुसीबतें मोल लेकर कौन तुम्हारे ब्रम्ह की साधना करता फिरे फिर ऐसे ब्रम्ह कैसे प्राप्त किया जा सकता है।
इसलिए ये सब प्रयत्न करना व्यर्थ है।
हमारे सुंदर सलोने कृष्ण के छबीले मुख का दर्शन करने के लिए आसन, प्राणायाम, भस्म, मृगछाला आदि को एकत्र करना और फिर उसका ध्यान करना इन सब बातों की बिल्कुल जरूरत नही पड़ती।
वे कहना चाहते हैं की जब तुम्हारे ब्रम्ह का ध्यान करने के लिए इन सारी वस्तुओं को जुटाना आवश्यक है तो ऐसा कौन होगा जो इन प्रपंचों में पड़कर के उनकी साधना करता फिरे उसकी आराधना करता फिरे।
ऐसा कौन मूर्ख है जो अपने माणिक्य को त्यागकर राख को उसकी गांठ में बांधे हमारे कृष्ण तो मणि के समान अमूल्य है और तुम्हारा ब्रम्ह राख के समान तुच्छ है।
विशेष :
- सूरदास जी सगुन मार्ग की भक्ति का
- पक्ष लेते हुए इसे सहज और सरस् बताते हैं।
- जबकि योगमार्गी भक्ति को क्लिष्ट कठिन और असहज बताते हैं अपने अष्टांग योग को साधनों का उल्लेख किया गया है। बांध बांधना और आदि मुहावरे भाषा की व्यंजना शक्ति को विस्तार देते हैं
- अगम अपार अगाधै में वृतयानुप्रास तथा सम्पूर्ण पद में अन्योक्ति अलंकार का प्रयोग सूरदास जी द्वारा किया गया है।
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