भूकंप क्या है अचानक होने वाला हलचल है। इसके प्रभाव से पृथ्वी का क्षेत्र - हिलने लगता है। भूकंप का पता
उसके कम्पन और चारो ओर फैली लहरों से चलता है। जिस प्रकार पानी में
पत्थर फेंकने से वहाँ से चारों दिशाओं में लहरें कर फैलने लगती हैं, उसी
प्रकार चट्टानों में भी भूकंप के प्रभाव से लहरें चारों दिशाओं में
फैलती जाती हैं। इन लहरों या तंरगों की सघनता के अनुसार ही भूकम्प की
शक्ति का पता चल जाता है।
अगर एक वाक्य में भूकंप को परिभाषित करे तो - प्राकृतिक कारणों से जब
पृथ्वी की सतह कांपने लगती है तो उसे भूकम्प कहते हैं।
आर. एस. पवार के अनुसार "भूकम्प पृथ्वी के आन्तरिक भाग से सम्बन्धित वे धरातलीय कम्पन हैं।
जो प्रकृति द्वारा उत्पन्न होते हैं।"
इस प्रकार जब भी प्राकृतिक कारणों से धरती के नीचे की चट्टानों
में किसी न किसी प्रकार की विसंगति । पैदा होने लगती है तो धरती पर
भूकम्प आने लगता है।
(1) प्राचीन विचारधारा
प्राचीन मान्यता के अनुसार इसे देवीय शक्ति माना जाता था। बहुत पहले
ये धारणा बनी कि जब पृथ्वी पर पाप अधिक होने लगते हैं तो उनके भार से
पृथ्वी हिलने लगती है। बाद में लोगों ने माना कि पृथ्वी नाग सर्प के फन के
ऊपर है, जब नाग सर्प हिलता है तो पृथ्वी में भी कम्पन होने लगता है।
टर्की , कालीमण्टन, बल्गारिया आदि देशो में पृथ्वी को भैंसे के
सींग पर टिकी मानी गई है। उत्तरी अमेरिका में इसे कछुए पर, ईरान में
केकडे पर, तिब्बत में मेंढक पर तथा सुलावैसी में सुअर पर आधारित मानी
गयी है।
(2) आधुनिक या वैज्ञानिक विचारधारा
आधुनिक समय में प्राचीन विचारधारा को असत्य बता दिया गया है क्योंकि यह विज्ञान से बहुत दूर है। इसमें रखी गई बातों को मानना सम्भव नहीं है। अब भूकम्प की उत्पत्ति के लिए निम्न क्रियाओं को महत्वपूर्ण माना गया है
(1) भू-गर्भ में ऊँचे तापमान पर जल-वाष्प एवं गैसों की क्रियाशीलता - पृथ्वी
की गहराइयो में दरारों से या अन्य कारणों से पानी काफी नीचे पहंचने लगता
है तो वह पानी तेजी से गर्म होकर वाष्प में बदलता जाता है। पहले से
स्थित ज्वालामुखी के द्वारा पानी नीचे प्रवेश करता है तो वह
तेजी से और बहुत ऊचे दबाव में बदलने लगता है।
साथ-साथ अनेको प्रकार की गैसें भी वाष्प के साथ मिल जाती है। ऐसी
गैस मिश्रित उच्च दबाव वाली वाष्प गतिशील होती है। यही वाष्प
और गैस पृथ्वी की सतह की ओर आने का मार्ग ढूँढ़ता है।
ऐसा करते समय वह भू-तल की ओर दबाव डालकर एवं भू-तल का का रास्ता खोजकर तेजी
से गतिशील होने लगती है। कभी-कभी ये गैसें कमजोर पृथ्वी की पपड़ी से या दरारा
से मार्ग ढूंढकर भी पृथ्वी की सतह पर ऐसे मार्गों से तेजी से बाहर आने लगती
हैं। इन सारी क्रियाआ से पृथ्वी में कम्पन होने लगती है और
धरती पर भूकम्प आता है।
(2) ज्वालामुखी क्रिया- पृथ्वी के असन्तुलित भागों में जहाँ निकटवर्ती
गहरे सागरों की तली में सीमा (Sima) की परत सतह के काफी निकट आ गई है वहाँ
स्पष्टतः असन्तुलन को स्थिति पाई जाती है। इसी कारण ऐसे देशों में ज्वालामुखी
क्रिया के साथ अथवा बिना ज्वालामुखी फटे ही भूकम्प आते रहते हैं।
(3) भ्रंश एवं सम्पीडन की क्रिया- पृथ्वी की सतह पर अनेक कारणों
से भ्रंश एवं सम्पीडन की क्रियाएं होती रहती है। ऐसी क्रियाओं के प्रभाव से
पृथ्वी की चट्टानें भ्रंस के प्रभाव से टूटती या खिसकती है। अथवा पृथ्वी
की सतह पर दरार घाटी ब्लाक पर्वत विकसित होते रहते हैं। ये सभी तनाव
सम्बन्धी क्रियाएँ हैं । इनके प्रभाव से सम्बन्धित क्षेत्रों में तेजी से
चट्टानों के खिसकाव से भूकम्प आते हैं। जब ऐसी क्रियाएँ पृथ्वी की गहराई में
होती हैं तो अधिक विस्तृत क्षेत्र में भूकम्प आते हैं।
असम का 15 अगस्त, 1950 का भूकम्प एवं बिहार का सन् 1934 का भूकम्प तथा
सन् 1967 में दक्षिणी पर का कोयना भूकम्प ऐसे ही भूकम्प थे।
(4) भू-सन्तुलन की अव्यवस्था - पृथ्वी के अधिकांश भागों में
भू-सन्तुलन सम्बन्धी थोड़ी-बहुत अव्यवस्था पाई जाती है, किन्तु कुछ भाग
ऐसे हैं जहाँ कि गगनचम्बी पर्वत एवं गहरे सागर पास-पास स्थित है । ऐसे
भागों में सन्तुलन की अव्यवस्था सबसे अधिक पाई जाती है। इसी कारण वहाँ
पुनः व्यवस्था की स्थिति स्थापित करने की दिशा में भू-गर्भ में आन्तरिक
शक्तियों द्वारा निरन्तर प्रभावी क्रियाएँ होती रहती हैं।
इसके कारन कई बार भू-सतह पर भूकम्प भी आ सकते है। जापान में आने
वाले विनाशकारी भूकम्प, फिलीपीन्स के भूकम्प एवं अफगानिस्तान में 4
मार्च, 1949 में आया हिन्दकोह (हिन्दुकुश) का भूकम्प ऐसी सन्तुलन की
अव्यवस्था। एवं उसमें आये अचानक स्थानीय परिवर्तन का ही प्रभाव परिणाम
माना जाना चाहिए।
(5) प्रत्यास्थ पुनश्चलन सिद्धान्त- यह सिद्धान्त डॉ. रीड का है।
इसके अनुसार, प्रत्येक चट्टान में थोड़ी मात्रा में धीमी गति से होने
वाली खिंचाव अथवा दबाव को सहन करने की क्षमता होती है। इसी आधार पर डॉ.
रीड ने अपना सिद्धान्त चट्टानों में प्रत्यास्थ पुनश्चलन सिद्धान्त'
(Elastic Rebound Theory) प्रस्तुत किया। डॉ. रीड के अनुसार, जब चट्टानों
पर क्षमता से अधिक तनाव या दबाव की स्थिति आ जाती है या जब तेजी से ऐसा
दबाव बढ़ने लगता है तो ऐसी अधिक शक्ति को चट्टानें सहन नहीं कर पाती तथा
टूट जाती हैं।
यही नहीं, ऐसी टूटी हुई चट्टानें पुनः खिंचकर अपनी पुरानी स्थिति में भी
आने लगती हैं क्योंकि चट्टानों के लचीलेपन के प्रभाव से ही धीमी गति के
दबाव व भिचाव को चट्टान सहन करके दबती रही या उसमें वलन (मोड़) पड़े ।
पर्वतों में परिवलन (Over thrust) एवं प्रीवा खण्डों में होने वाला
चट्टानों का चलन इसी का उदाहरण है। चट्टानों के इस क्रिया के साथ पुनः
अपनी मूल स्थिति में सिमट जाने से वहाँ कुछ स्थान खाली हो सकता है। इससे
भी पृथ्वी की सतह पर । कहीं-कहीं भूकम्प आते हैं।
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