आप सभी पाठकों का एक बार फिर से स्वागत आज हम बात करने वाले हैं जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित प्रसिद्ध महाकाव्य कामायनी के बारे में इसमें उसकी आलोचना खंड की चर्चा हम इस पोस्ट के माध्यम से करेंगे। मतलब यहां पर जयशंकर प्रसाद के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में बताया गया है।
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jaishankar prasad biography in hindi |
जयशंकर प्रसाद का जीवन परिच
कवि का जीवन उसकी कृतियों में परोक्ष रूप से झांका करता है। जो कार्य साधारण व्यक्ति व्याख्या से करता है, उसे वह संकेत मात्र से कर लेता है। वह जिस संसार से अनुप्राणित होता है, उसकी व्याख्या भी अपने आदर्शों के अनुसार करता है। प्राचीन युग का ऋषि कवि तथा आज का स्वच्छंदतावादी कलाकार, दोनों ही अनुभूति और कल्पना से अपनी कृति का निर्माण करते हैं। विश्व के सभी महान कवियों के काव्य में उनके जीवन की छाया परोक्ष रूप से दिखाएं देती है।
कवि प्रसाद की पितामह बाबू शिवरतन साहू काशी के अत्यधिक प्रतिष्ठित नागरिक थे। वे
तंबाकू के बड़े व्यापारी थे और एक विशेष प्रकार की सुरती बनाने के कारण
"सुंघनी साहू" के नाम से विख्यात थे। धन-धान्य से परिवार भरा पूरा रहता था। कोई
भी धार्मिक अथवा विद्वान काशी में आता तो साहू जी उसका बड़ा स्वागत करते। उनके
यहां पर प्रायः कवियों, गायकों, कलाकारों की गोष्ठी होती रहती थी। वे इतने
अधिक उदार थे कि मार्ग में बैठे हुए भिखारी को अपने वस्त्र उतार कर देना साधारण
सी बात समझते थे। लोग उन्हें "महादेव" कहकर प्रणाम करते थे। कवि के पिता
बाबू देवी प्रसाद साहू ने पितामह का-सा ही ह्रदय पाया था।
ऐसे वैभव पूर्ण और सर्वसंपन्न वातावरण में प्रसाद का जन्म माघ शुक्ल दशमी, 1946
विक्रम संवत को हुआ था। उस समय व्यापार अपने चरम उत्कर्ष पर था, किसी प्रकार का
कोई अभाव ना था। तीसरे वर्ष में केदारेश्वर के मंदिर में प्रसाद का सर्वप्रथम
क्षौर संस्कार हुआ। उनके माता-पिता तथा समस्त परिवार ने पुत्र के लिए इष्ट देव
शंकर से बड़ी प्रार्थना की थी। वैधनाथधाम के झारखंड से लेकर उज्जयिनी
के महाकाल तक के ज्योतिर्लिंगों की आराधना के फल-स्वरूप पुत्र रत्न का जन्म
हुआ।
शिवप्रसाद के शिव के प्रसाद स्वरूप इस महान कवि का जन्म हुआ था। जीवन के प्रथम चरण में ही अपने पाणि-पल्ल्वों के लेखनी उठा लेना उसके आगामी विकास का परिचायक है। 5 वर्ष की अवस्था में संस्कार संपन्न कराने के लिए प्रसाद को जौनपुर सौंदर्य ने कवि की शैशवकालीन स्मृतियों पर अपनी छाया डाल दी। सुंदर पर्वत श्रेणियां, बहते हुए निर्झर, प्रकृति नव-नव रूप सभी ने उनके नादान ह्रदय में कुतूहल और जिज्ञासा भर दी।
नौ वर्ष की अवस्था में प्रसाद ने 1 लंबी यात्रा की। चित्रकूट, नैमिषारण्य, मथुरा, ओमकारेश्वर, धारा क्षेत्र, उज्जैन तक का पर्यटन किया। इस अवसर पर परिवार के अधिकांश व्यक्ति भी साथ थे। चित्रकूट की पर्वतीय शोभा, नैमिषारण्य का निर्जर वन, मथुरा की वनस्थली तथा अन्य क्षेत्रों के मनोरम सौंदर्य पर वे अवश्य रीझ उठे होंगे।
कवि के विशाल भवन के सम्मुख ही एक शिवालय है, जिसे उनके पूर्वजों ने बनवाया था।
उनका परिवार शैव था। उनके अनेक अवसरों पर मंदिर में नृत्य हुआ करते थे। बालक
प्रसाद भी भागवद भक्ति में तन्मय होकर भक्तों का स्तुतिपाठ करना देखते रहते
थे। प्रातः काल वातावरण को मुखरित कर देने वाली घंटे की ध्वनि उनके लिए उस
समय केवल एक जिज्ञासा, कुतूहल का विषय था। जीवन के आरंभ में शिव की भक्ति करने
वाला कवि अंत में शैव दर्शन से प्रभावित हुआ।
आरम्भ से ही प्रसाद की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया। पिता ने घर पर संस्कृत,
हिंदी, अंग्रेजी, फारसी आदि भाषाओं को पढ़ाने की व्यवस्था कर दी। कवि की
प्रारंभिक शिक्षा प्राचीन परिपाटी के अनुसार हुई। घर पर उन्हें कई अध्यापक पढ़ाने
आया करते थे।
प्रसाद लगभग 12 वर्ष के ही थे कि 1921 में उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। घर का समस्त भार बड़े भाई शम्भुरतन पर आ पड़ा वे स्वतंत्र इच्छा के निर्भीक व्यक्ति थे। हृष्ट-पुष्ट शरीर के साथ ही उन्हें पहलवानी का शौक था। सायंकाल अपनी टमटम पर घूमने निकल जाते। रोब के कारण यदि कोई दौड़ लगाता, तो उसे पछाड़ देते। उनका ध्यान व्यवसाय की ओर अधिक न था। धीरे-धीरे उसे व्यापार में हानि पहुंचने लगी और पूर्वजों की थाती को संभालना भी कठिन हो गया।
प्रसाद जी के पिता देवीप्रसाद की मृत्यु के पश्चात ही गृहकलह आरंभ हो गया। कुछ समय तक प्रसाद की माता ने इसे रोका, पर वह उग्र रूप धारण करता गया। शंभूरतन जी ने अपनी उदारता और सहृदयता से उसे कम करने का पूर्ण प्रयत्न किया, किंतु वह बढ़ता ही गया। अंत में प्रसाद के चाचा और बड़े भाई में मुक्केबाजी हुई।
यह मुकदमा लगभग 3 से 4 वर्ष तक चलता रहा। अंत में शंभूरतन जी की विजय हुई। समस्त संपत्ति का बंटवारा हो गया। इस बीच ध्यान न देने के कारण सारा पैतृक व्यवसाय भी चौपट हो गया। अन्य व्यक्ति लूट मचा रहे थे, जब शंभूरतन जी ने बंटवारे के पश्चात अपने घर में प्रवेश किया, तब वहां भोजन आदि के पात्र न थे।
इस अवसर पर प्रसाद जी ने अपने एक चित्र को बताया था कि जब कभी घर से कोई काम-काज होता था, तो दुकान का टाट उलट दिया जाता था। उसके नीचे बिखरी हुई पूंजी मात्र से वह कार्य भली-भांति संपन्न हो जाता था। जिस घर में रजत पात्रों में भोजन किया जाता था, वहीं शंभूरतन जी ने एक नवीन की हस्ती का निर्माण किया।
दुकान के साथ ही लाखों के ऋण का भार भी शंभूरतन जी पर आ पड़ा। एक-एक करके सम्पत्ति विक्रय की जाने लगी। बनारस में चौक पर खड़ी हुई भारी इमारत भी बेंच देनी पड़ी। इन्हीं झंझटों के बीच प्रसाद की कॉलेज-शिक्षा भी छूट गई। वे आठवीं तक पढ़ सके। अब प्रसाद जी को प्रायः नारियल बाजारवाली दुकान पर बैठना पड़ता था। घर पर अब भी शिक्षा का क्रम बराबर चल रहा था। अपने गुरु रसमयसिद्ध ने उन्हें उपनिषद पुराण, वेद, भारतीय दर्शन का अध्ययन करने की प्रेरणा मिला। प्रसाद का समस्त साहित्य इसी का विस्तृत अध्ययन और चिंतन से अनुप्रमाणित है।
बनारस चौक से दाल मंडी में जो गली दाईं ओर मुड़ती है, उसी में लगभग चार हाथ पर नारियल बाजार में सुंघनीसाहू की दुकान थी। उसी पर प्रसाद को बैठना पड़ता। शंभूरतन जी शरीर की ओर ध्यान देते थे। स्वयं प्रसाद जी भी खूब कसरत करते थे। वह उन इने-गिने साहित्यकारों में से थे, जिन्हें स्वस्थ शरीर में एक स्वस्थ मस्तिष्क प्राप्त हुआ था। प्रसाद जी के पास सौंदर्य, धन और यश तीनों ही थे।
अब प्रसाद जी का परिवार एक वैभवशाली परिवार न रह गया था। ऋण के कारण सभी कुछ समाप्त हो गया था। किसी प्रकार शम्भुरतन जी बिखरे हुए व्यापार को सुधारने का प्रयास कर रहे थे। इसी समय प्रसाद जी की माता का देहांत हो गया। कवि माता के पुनीत दुलार और स्नेह से भी वंचित हो गया। संघर्षों के बीच भी प्रसाद जी का अध्ययन चल रहा था। इसी बीच उन्होंने ब्रजभाषा में सवैया, धनाक्षरी आदि लिखना आरंभ कर दिया था।
जयशंकर प्रसाद की अवस्था इस समय केवल सहस्त्र वर्ष वर्ष की थी। उन्हें जीवन का अधिक अनुभव न था। वे अपनी भावक्ता का आनंद हि ले रहे थे कि उन पर यह ब्रजपात हुआ। इस प्रकार केवल 5-6 वर्षों के भीतर ही प्रसाद ने तीन अवसान देखें पिता, माता और भाई। स्नेह-देवालय के महान श्रृंग गिर गए। वे अकेले ही रह गए, निः सहाय। ऐसे संकट काल में भारतीय दर्शन ने प्रसाद जी को नवीन प्रेरणा दी। सम्भवतः कामायनी का "शक्तिशाली हो विजयी बनो" उनके मस्तिष्क में उस समय गूंज उठा होगा। उनके चारों ओर विषमताएं खेल रही थी। लोग उन्हें अल्पावस्था का जानकर लूट लेना चाहते थे, पर उनके हाथों में यश था। उन्हें स्वयं अपना विवाह भी करना पड़ा। इसके अनन्तर उनके दो और विवाह हुए।
17 वर्ष की अल्पायु में ही एक भारी व्यवसाय और परिवार का उत्तरदायित्व भावुक प्रसाद पर आ पड़ा प्रसाद जी ने अपने व्यवसाय को देखना आरंभ किया। बाहर जब भी कोई व्यापारी आता तो वे स्वयं उससे बातचीत करते। इत्र आदि बनाने के समय वह जाकर उनका पाग देख लिया करते और इसमें तो वे कन्नौज के व्यापारियों को भी मात दे देते थे। अपने पैतृक व्यापार को संभालने का उन्होंने भरसक प्रयास किया।
गृह-कलह के पश्चात व्यापार की दशा बड़ी जर्जर हो गई थी। सुँघनी साहू का काशी में अब भी वही नाम था, किंतु व्यवसाय की दृष्टि से निःसंदेह वह पीछे था। प्रसाद जी ने आजीवन अपने विगत वैभव को पाने का प्रयास किया और अंत में सभी कुछ नियति के भरोसे पर छोड़ दिया। उन्होंने धीरे-धीरे समस्त ऋण चुका दिए थे।
बड़े भाई की मृत्यु के पश्चात ही उन्होंने अपने जीवन में अनेक परिवर्तन कर लिए थे। किसी प्रकार का कोई व्यसन उन्हें नहीं था। प्रातः काल उठकर वे गंगा नदी की ओर भी भ्रमण के लिए निकल जाते थे। यदि उतना समय न होता, तो बेनियाबाग तक ही चले जाते। वहां से लौटकर कसरत करने के पश्चात ही नियमित रूप से लिखने बैठ जाते। स्नान-पूजन के पश्चात दुकान चले जाते। यहां पर भी रसिकों की मंडली जमा रहती।
इसी दुकान के सामने प्रसाद जी ने एक खाली बरामदा अपने मित्रों के बैठने के लिए ले लिया था। नित्यप्रति संध्या समय वहीं पर बैठक होती थी। अच्छा खासा दरबार जमा रहता था। दुकान से लौटकर वे रात को देर तक लिखा करते थे। उनकी अधिकांश साहित्य-साधना संसार के प्रमुख कलाकारों की भांति रजनी के प्रहरों में ही निर्मित हुई।
कवि-जीवन के आरंभ में जिन व्यक्तियों से उन्होंने विशेष प्रेरणा ली, उनमें से एक उनके पड़ोसी मुंशी कालिन्दी प्रसाद और दूसरे रीवा निवासी श्री रामानंद थे। मुंशी कालिंदी प्रसाद उर्दू-फारसी के अच्छे विद्वान थे। प्रसाद ने इन विषयों के अध्ययन में उनसे प्राप्त पर्याप्त सहायता ली थी।
प्रसाद का साहित्यिक जीवन "इंदु" पत्रिका से प्रकाश में आया। इंदु मासिक पत्रिका थी जिसका समस्त कार्य प्रसाद की योजना के अनुसार होता था। इसके संपादक और प्रकाशक उनके भांजे अंबिका प्रसाद गुप्त थे।
प्रसाद जी का जीवन एक साधक के समान था। किसी प्रकार की सभा आदि में जाना उन्हें प्रिय ना था। इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि वे अभिमानी थे। वास्तव में वे संकोचशील व्यक्ति थे प्रायः घर अथवा दुकान पर ही अपने मित्रों के साथ बैठकर बातचीत किया करते थे। नियमित रूप से साहित्यिक व्यक्ति उनके पास आ जाते और फिर देर रात को देर तक कार्यक्रम चलता रहता।
प्रसाद दूसरों को प्रायः उत्साहित करते रहते। वे मित्रों के साथ कभी-कभी नौका विहार के लिए चले जाते और सारनाथ भी घूम आते। उनके यहां बैठे हुए व्यक्ति प्रायः एक दूसरे से हास-परिहास किया करते और उन्हें कभी-कभी बिलकुल दरबारी ढंग से काम होने लगते। इस अवसर पर भी प्रसाद जी सदा मुस्कुराया करते। स्वयं हास-परिहास अथवा बातचीत में प्रायः खुलकर भाग नहीं लिया करते थे। भांग-बूटी नित्यप्रति ही छनती थी, किंतु वे प्रायः उसका सेवन नहीं करते थे। उनमें शिष्टता और शालीनता अधिक थी। वह संयत स्वभाव के व्यक्ति थे और उनके मित्रों का कथन है कि प्रायः मुखर नहीं होते थे।
अपने राजनीतिक जीवन में प्रसाद पूर्ण देशभक्त थे। उन्होंने स्वयं राजनीति में सक्रिय भाग नहीं लिया, किंतु अपने विचारों में वे पूर्णतया देशप्रेमी थे। कांग्रेस की अपेक्षा गांधी जी के व्यक्तित्व ने उन्हें अधिक प्रभावित किया था। वह देश भक्ति के साथ ही सांस्कृतिक उत्थान के भी पक्षपाती थे। अपने ऐतिहासिक नाटकों के द्वारा उन्होंने इसी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पुनरुत्थान का प्रयास किया।
भारतीय संस्कृति के प्रति मोह रखते हुए भी वे रूढ़िवादी नहीं थे जीवन में दीर्घ समय तक शुद्ध खद्दर पहनते रहे। जाती-पाती, छुआछूत, पाखंड आदि से वे कोसों दूर थे। एक बार जब उनकी जाति के व्यक्तियों ने उन्हें सभापति बना दिया तब उन्होंने उसे ऊपरी मन से स्वीकार कर लिया और बाद में तार दे दिया कि मैं न आ सकूंगा। काशी में अखिल भारतीय कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर उन्होंने गांधी जी के दर्शन किए थे।
शक्ति के उपासक होते हुए भी वे अहिंसा के पुजारी थे और बौध्द दर्शन की ओर अधिक झुके थे। उनकी धारणा थी कि करुणा ही मानव का कल्याण कर सकती है। आंसू में (आंसू उनके काव्य का नाम है) उन्होंने अपनी भावना का प्रतिपादन किया है। प्रसाद के संपूर्ण साहित्य में करुणा ममता का स्वर मिलता है।
प्रसाद के सम्पूर्ण जीवन की प्रेम-घटना को लेकर विद्वानों में पर्याप्त वाद विवाद हो चुका है। कुछ लोग तो अनर्गल धारणाएं बना लेते हैं। इसमें संदेह नहीं कि "आंसु" के वियोग-वर्णन के मूल में कोई अलौकिक आलंबन है। उसकी अनुभूति इतनी प्रत्यक्ष है कि उससे कवि की व्यक्तिक भावना का स्पष्ट परिचय मिल जाता है। उनके साहित्य में बिखरी हुई प्रेम और अतृप्ति की भावना इसका प्रमाण है कि जीवनानुभूति में कोई ऐसा प्रसंग अवश्य था, किंतु प्रसाद के काव्य में उक्त भावना का उदात्तीकरण भी होता गया है और अंत में वह वैयक्तिक घटना उच्चतर मानसिक और दार्शनिक भूमि पर रखी जा सकी है। उनके परवर्ती काव्य को देखने से पता चलता है कि सौंदर्य और प्रेम के विषय में उनकी बड़ी उदात्त भावना थी।
प्रसाद ने अपने जीवन में अनेक उत्थान-पतन देखे थे। वैभव और अकिंचनता एक साथ उनके जीवन में आए थे। रजतपात्रों में भोजन करने वाले प्रसाद को अनेक वर्ष तक ऋणी रूप में रहना पड़ा। उनके आंतरिक जीवन में भी यही स्थिति थी। तीन-तीन नारियों का उनके जीवन में समावेश हुआ था। माता का दुलार उनसे यौवन के आरंभ के पूर्व ही विदा ले चुका था। मां के चले जाने के पश्चात जीवन पर्यंत उन्होंने अपनी भाभी की पूजा की। कवि के साहित्य पर दृष्टिपात से इतनी करने से इतना अनुमान अवश्य होता है कि उसे अपने जीवन में अधिक प्रेम और स्नेह मिला था।
प्रसाद जी की रचनाएं
- कानन कुसुम
- प्रेम पथिक
- आंसू
- झरना
- लहर
- कामायनी