समाज सुधार एक प्रकार का सामाजिक आंदोलन होता है जिसका उद्देश्य सामाजिक या राजनीतिक व्यवस्था को आदर्श के करीब लाना होता है। समाज सुधार को क्रांतिकारी आंदोलन से अलग किया जाता है जो उन पुराने आदर्शों को अस्वीकार करते हैं जो पहले चले आ रहे होते है। जिसमे लोगो को परेशानी होती है।
कुछ लोग व्यक्तिगत परिवर्तन पर भरोसा करते हैं। अन्य लोग छोटे सामूहिक पर भरोसा करते हैं, जैसे कि महात्मा गांधी के चरखा और आत्मनिर्भर गांव की अर्थव्यवस्था, सामाज को प्रभावित किया।
![]() |
समाज सुधार क्या है |
भारत में समाज सुधार आंदोलन
सती प्रथा - आप तो जानते ही हैं भारत में बहुत सारी प्रथाएं हुआ करती थी उन्ही में से एक प्रथा सति प्रथा था तो आओ जाने सती प्रथा होता क्या था इस प्रथा में लोगों की ये भावना थी की पति की मृत्यु के पश्चात पत्नी को जीने का कोई अधिकार नहीं। इस कारण पत्नी को पति की मृत्यु के पश्चात,उसके साथ ही चिता में बैठा कर जला दिया जाता था।
सती प्रथा का समापन एक पुर्तगाली वायसराय अल्बुकर्क ने सर्व प्रथम वर्ष 1510 में गोवा मे इस प्रथा को बन्द करवाया था। राजा राममोहन राय के प्रयासों से लॉर्ड विलियम बैंण्टिक ने 4 दिसम्बर ,1829 को 17वें नियम के तहत बंगाल में सती प्रथा पर रोक लगा दी। साथ ही 1830 में मुम्बई एवं मद्रास सहित अन्य क्षेत्रों में भी सती प्रथा पर रोक लगा दी गई। इस प्रकार सती प्रथा का समापन हुआ।
बाल विवाह - आप जानते ही होंगे की बाल विवाह क्या होता है अगर नहीं जानते तो चलिए मैं आपको बताता हूँ बाल विवाह में होता क्या था बाल विवाह में बच्चों की शादियां कर दि जाती थीं और उसे बचपन से ही विवाहित मान लिया जाता था। जिसके कारण अगर दुर्घटना वश उसके पति की मृत्यु भी हो जाती तो वह बचपन में ही विधवा हो जाती और अन्य के साथ विवाह नहीं कर पाती और उम्र भर उसे विधवा बनकर रहना पड़ता था कई सारी मुस्किलो का सामना करना पड़ता था।
तो आइये जानते हैं की बाल विवाह का अंत कैसे हुआ। बाल विवाह के विरुद्ध सर्व प्रथम आवाज राजा राममोहन राय ने उठाई थी,परन्तु केशवचन्द्र सेन व बीएम मालाबारी के प्रयासों से सर्व प्रथम वर्ष 1872 में देसी बाल विवाह अधिनियम पारित हुआ था। इस अधिनियम मे 14 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं तथा 18 वर्ष से कम आयु के बालकों के विवाह को प्रतिबंधित किया गया।
एसएस बंगाली के प्रयासों के फलस्वरूप वर्ष 1891 में ब्रिटिश सरकार ने एज ऑफ़ कन्सेंट एक्ट पारित किया,जिसमें 12 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह पर रोक लगा दी गई। वर्ष 1930 में बाल विवाह को रोकने के लिए शारदा अधिनियम पारित किया गया , जिसमें विवाह की आयु बालिकाओं के लिए 14 वर्ष तथा बालकों के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गई।
विधवा - उनको कहा जाता है जिनकी पति मर गए होते हैं। पहले विधवाओं को फिर से विवाह करने का अधिकार नहीं हुआ करता था जिसके कारण महिलाओं को उम्र भर अकेले ही गुजारना पड़ता था। तथा अनेक कठनाइयों का सामना करना पड़ता था। तो फिर इस प्रथा का अंत कैसे हुआ आओ जानते हैं इस प्रथा के अंत को एक नाम दिया गया विधवा पुनर्विवाह का।
विधवा पुनर्विवाह के क्षेत्र में सर्वाधिक योगदान कलकत्ता के एक संस्कृत कॉलेज के आचार्य ईश्वरचन्द्र विधासागर ने दिया। उन्होंने एक हजार हस्ताक्षरों से युक्त-पत्र,डलहौजी को भेजकर विधवा विवाह को कानूनी रूप देने का अनुरोध किया था। ईश्वरचन्द्र विधासागर के प्रयासों के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार (लॉर्ड कैनिग के समय) ने वर्ष 1856 में हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 15 पारित किया,जिसमें विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता दी गयी। डी के कर्वे एवं वीरेसलिंगम पुनतालु ने भी विधवा पुनर्विवाह के लिए कार्य किया।
बाल-हत्या प्रथा - यह प्रथा बंगाल के राजपूतों में अधिक प्रचलित थी। इनमें बालिका शिशुओं को बेरहमी से मार दिया जाता था। वर्ष 1975 में बंगाल नियम-21 और वर्ष 1804 में नियम-3 के तहत इस कुप्रथा को रोकने के प्रयास किए गए।
दास प्रथा - वर्ष 1789 में दासों के निर्यात को बन्द कर दिया गया। वर्ष 1833 के चार्टर ऐक्ट द्वारा ब्रिटिश सरकार ने दासता पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाया था तथा प्रतिबन्ध को वर्ष 1843 में सम्पूर्ण भारत पर लागू किया गया। वर्ष 1860 में दासता को भारतीय दण्ड सहिंता के द्वारा अपराध घोषित कर दिया गया।
इस प्रकार यदि देखा जाये तो भारत के सामाजिक सुधार में भारतीयों के साथ-साथ अंग्रेजी शासन ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसकी वजह से ही भारत आज इतनी दूर निकल आया है लेकिन आभी भी भारत में कुछ ऐसी प्रथाए जिनका निवारण करना बाँकी है।
जैसे जाती वाद अभी भी कहीं न कहीं देखने को मिलता। हिन्दू,मुस्लिम,सिख,ईसाई,सब हैं भारत में लेकिन एकता थोड़ी कम हो रही हैं इसलिए एकता बनाकर चले तभी जीने का मजा है।
क्या आप जानते हैं
19 वीं सदी में बहुत सारे समाज एवं धर्म सुधार आंदोलन हुए जिनका जिक्र आज मैं अपने ब्लॉग में करने जा रहा हूँ तो चलिए कुछ पुरानी यादें ताजा हो जाये-
भारतीय समाज तथा धर्म में सुधार की प्रक्रिया 19वीं शताब्दी में एक नए आंदोलन के रूप में उभरा जिसे भारतीय शिक्षित मध्य वर्ग ने अपना समर्थन प्रदान किया। विभिन्न संस्थाओं एवं संगठनों के सहयोग से जनजागरण की चेतना ने अखिल भारतीय ग्रहण किया।
अंग्रेजी शासन की कुछ खामियों के कारण ये धर्म सुधार आवश्यक हो गया था।
समाज एवं धर्म सुधार आंदोलन के क्या कारण हैं आओ जाने
1. पश्चिमी सभ्यता से सम्पर्क।
2. अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव।
3. मध्यम वर्ग का उदय।
4. ईसाई मिसनरीयों के कार्य।
5. समाचार पत्रों एवं आवागमन के साधनों का विकास।
6. राष्ट्रीयता की भावना का विकास।
समाज एवं धर्म सुधार आंदोलन से जुड़ी कुछ संस्थाये निम्न हैं-
1. ब्रम्ह समाज- संस्थापक राममोहन राय स्थापना वर्ष-20 AUG 1826 कलकत्ता।
2. आर्य समाज- दयानन्द सरस्वती द्वारा वर्ष 1875 में बम्बई में की गयी।
3. रामकृष्ण मिशन- स्वामी विवेकानन्द द्वारा 1896-97 में कलकत्ता के समीप बराह नगर में की गयी।
4. प्रार्थना समाज- आत्माराम पाण्डुरंग ने वर्ष 1867 में बम्बई में केशवचन्द्र सेन की सहायता से किया। पण्डिता रामाबाई ने इसे प्रसिद्धि दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
5. थियोसॉफिकल सोसायटी- मैडम ब्लावत्सकी एवं कर्नल हेनरी अल्काट द्वारा न्यूयार्क में जनवरी 1882 में की गयी। जनवरी 1882 मे भारत (मद्रास) आये और मुख्यालय स्थापित किया।